आख़िर वो भी किसी नस्से से कम नहीं...
यहां जिंदगी में उसकी लत क्या लगी,
वहां हम भी हर लम्हा अपनी बर्बादी की जसन मनाते दिखे...-
ख़ामोशी से आदत को नहीं
आदतों से ये ख़ामोशी मिली है...
दरिया से उभरके कहाँ
गहरायी में डूबके यहाँ ज़िन्दगी मिली है...-
चलो.. जो शुरू हुआ ही नहीं...
वो दास्ताँ को यहीं, ख़त्म हम करते हैं...
बाद में जाके बिखरना है क्यों,
बेहतर इस लम्हात, ज़रा टूट ही जातें हैं...
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जब सिद्दत की कलम को वफाई की श्याही मिलने लगी...
तब कुछ कागज़ कोरें भी इबादत की नाम जपने लगी...
हालांकि उसकी निगाहें जो कभी वफ़ा करती ना थी,
वो भी इस दफा मुसाफिर-सौखीन सी बनने लगी...-
बस किसीके इंतज़ार में यूँ ही रातें गुरति रहती है...
और इन्ही सिलसिलों के चलते,
एक रोज़ इंतज़ार भी दम तोड़ देती है...-
आज तो एक क़तरा आंसू यूँ ही हमारे गालों को चूमते हुए जमीनसे जा टकराया,
जैसे ही माँ ने कहा की बेटा तेरे इस हस्सी में और वो सुकून की खुसबू बाकी ना रहा...
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अब तो बस कागज़ और कलम ही एक साहारा बनती,
जिसपे ज़िन्दगी की सच्चाई कायम हो पाती...
वरना होंठो पर बिखरी हुई वो मुस्कराहट भी झूटी,
और अल्फ़ाज़ों से ज़ाहिर हर इक़रार भी फ़रेबी...-
आखिर क्या खराबी है
मुझे मुझसा ही रहने में...
गर कभी तुझसा बन जाऊं,
तो शायद तुझे भी ना रास आऊँ...-
वक़्त का तो ज़िक्र क्या ही करें...
आज कल तो लोग
किनारे में रहके भी डूब जातें हैं...-
हमारा उनसे रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है
जैसे कुल्हड़ की वो आखरी घूंट वाली चाय...
जिससे मोहब्बत भी उतनी ही शिद्दत होती है
जितना की उसके ख़त्म हो जाने की वेबसि...-