कैसे भरूं कैसे भरूं अपने अंदर के अंत-हीन खालीपन को, जिसके साथ हैं हजारों विचार, लाखो सपने और उन सपनों में मद्दम आंच के किनारे बैठी हुई मेरी संवेदनाएं तुम्हारे लिए।
जीत कर हार कर लड़ कर उलझ कर खुद से खुद को अलग करने की जद्दोजहद कैसे भरूं।
कैसे भरूँ उस अँधेरे कमरे को जिसका दरवाज़ा बड़ी मज़बूती से बंद है, सैकड़ो टिमटिमाते जुगनुओ से कैसे भरु।
जो रोशनी की तलाश में अपना अतीत भी प्रकट न होने देता है कैसे भरूं।
जो मन खिड़कियों को खोलता है तो चिटकनी की आवाज भी शोर लगती है फिर उस खालीपन को कैसे भरूं।
~पीयूष गिरि-
उकेरता हूं शब्द मै पन्नों पर
थोड़ी राहत सी आ जाती है
ज़ख्म ... read more
Kaun kehta husn bijliyan nhi girate
Gar shak ho to ajamaakar dekh len-
शायद मजबूर हूँ
तभी तो मजदूर हूँ।
लेकिन किसका,
तुम्हारी लालच का
या अपनी बोझिल
जिम्मेदारियों का।
कभी खुद से दूर हूँ
तो कभी परिवार से।
गर्व से कहता हूँ
सृजन किया है मैंने
तुम्हारे घर, दुकानें,
सड़कें, रेस्तरां, होटल
और ना जाने क्या क्या।
इतना अद्भुत कौशल
रखकर भी मजबूर
क्योंकि मैं मजदूर हूँ।
तुम्हारे बड़े से निवाले का,
आखिरी हिस्सा खाने को
आज भी मजबूर हूँ।
हाँ हाँ साहब, जी जी सर,
कहने को मजबूर हूँ
क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।-
कर्ज़ तेरी यादों का हम फिर छोड़ जाएंगे,
एक रोज़ हम तुमसे मिलने जरूर आएंगे।
अपनी अक्सियत का चिराग़ जलाये रखना
हम फिर उसी पुराने अन्दाज़ में गुनगुनाएँगे।।-
जब लगे कि तुममें, तुम से बड़ा कोई और है
तो समझ लेना कि तुम, तुमसे बहुत बड़े बनोगे-
जो ज़ाहिर है मेरी आँखो में वो छुपाएँ कैसे
तू कितनी खूबसूरत है तुझे बताएँ कैसे-
कैद रहने दो गर्ग मुझे अपनी महफूज़ पनाहों में
यूँ खुदगर्ज़ी की आज़ादी मुझे अच्छी नहीं लगती-
कश्तियों को यह राज़ बताना जरूर से
एक तूफान आने वाला है पूरे गुरूर से-
यूँ कशिश ले आँखों में तुम खामोश कर देती हो
गर्ग डूबने को कुछ और बाकी रह जाता भी क्या
कहने को तो हज़ार बातें कह दूँ तेरी तारीफ में
पर शिद्दत उस ख़ामोशी का रह जाता भी क्या-
गर्ग किस्सा हो मेरा तो स्वाभिमान लिख देना
दो गज़ ज़मीं और पूरा आसमान लिख देना-