Pankhuri Sinha   (❤Pankhuri my_petals)
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Joined 30 March 2020


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Joined 30 March 2020
7 FEB AT 15:15

"तू आकर देख ले मेरी ज़रज़र हालत में आवाज़ नहीं है 
बेज़ार हूँ बिन तेरे  सनम, ख़ामोश लबों में झंकार नहीं है

जिस्म बीमार मेरा, रूह में जहर ए अलामत दिख रही है
दर्द ए दिल की क़वायत थमती नहीं क्या ये बेदार नहीं है

डूब चुका हूँ ग़म ए  समन्दर में हक़ीक़त यही मेरी ज़िंदगी
हार चुका मोहब्बत की बाज़ी अब कुछ भी पर्दादार नहीं है 

आलम ए जुदाई में ज़हनी क़ैफ़ियत के साये आसेबी लगे
टूटे आईने में हमें दीवार तो दिखे पर साया ए दीवार नहीं है

वक़्त की साजिश समझ नहीं पाये बड़े नासमझ हम निकले
ज़ख्मी हुआ लड़ता कैसे तक़दीर से कि हाथ में तलवार नहीं है

तेरी खुशबु तेरी तश्वीर तेरे ख़तों के सिवा कोई समां नहीं 'अमृता
मेरी आँखों में इंतज़ार पर तेरे लबों पे मोहब्बत ए  इज़हार नहीं है।"
-अमृता

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18 JAN AT 18:44

माना ज़र्द आरिज़ और बेतरतीब उलझे मेरे ज़ुल्फ़ों के साये
ज़िद्द है जीने की  जीए जाएँगे  तक़लीफ़ों का साथ निभाए।

नाला- गिरी से हसील होगा क्या हमें  सोंचा थोड़ा मुस्कुरायें
ज़िंदगी कोई लतीफ़ा नहीं जो दुनिया-जहान को हम हँसाए।

निकाल फैंका तुम्हें अपनी ज़हनी क़ैफ़ियत से आख़िरश हमने
बरसने लगी अब्रे बाराँ इंद्रधनुषी धनक दिले फ़लक़ पे सजाये।

मिला मक्सद जीस्त को, मुस्तक़्बिल की धमक आभा से सजी
क़ामिल है जिन्दगानी बेहतर से बेहतरीन फ़र्दा हम इसे  बनाए।

सोज ए शब ढ़ली इक नई सुबह आफ़ताब लेकर आया आज
आलम ए बेख्याली में भी तुझे न सोंचे कि तुझे भूले बिसराए।

मुसलसल दौरे ज़िंदगी में मिलेंगी रानाईया तेरा नाम नहीं लेते
बड़े थाठ से सोते हैं अब शब -इंतज़ार में हम नहीं गुज़ार आए।

दौड़ रही तेज़ रफ्तारी से ज़िंदगी अब वक़्त हम  क्यूँ कर गवायें
जो चला गया उसके किस्से सुनाकर हम अहमक़ी क्यूँ दिखाए।
-अमृता

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22 DEC 2024 AT 18:54

मेरे रवैया-ए-रखाई  से होश फ़ाख्ता उसके इस कदर हुए
जीना मुहाल उसका हुआ ख़ामोश दो पल को जो हम हुए!

दाम-ए-तहय्युर में पुर-खैज़ हुये, हम बस्ती बस्ती भटक रहे
न हम फक़ीरियत पास हुये ,न रूहानियत से ही दूर हम हुए!

दो दिलों की डोर ऑ उसमें गिरह हरी भरी ताने नश्तर खड़ी
लफ्ज़ों के तीर उनके निशाने पे, बेज़ुबाँ बिस्मिल हश्र हम हुए!

सितम आराई के आलम में अब बाकी बचा क्या जो बयाँ करें
महफ़िल में अल्फ़ाज टूटे, फ़साना निकला तो शर्मसार हम हुए!

इस मोहब्बत का अंजाम ख़ुदा जाने, या जानेगा ज़माना हरसू
कहानी के किरदार गुमनाम दो, है मालूम कि इस बार हम हुए!
-अमृता

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14 DEC 2024 AT 22:48

रिश्तों  के  लिए  बंधन  की  दरकार नहीं
पैरों की जंजीरों के ये रिश्ते  हक़दार नहीं

उन्मुक्त  आज़ाद  रहने  दो  मुझे  जीने दो
रखो रुबाब खीसे में, तुम रसूक दार नहीं

अपनी  चाहतों  को  परखचे न  उड़ने देंगें
सैय्यादों के  हाथों में अभी  तलवार  नहीं

मेरा वजूद मेरी निजी मिल्क़ियत है,साहेब
फ़हिशा वरना सती बनूं ऐसी तलबगार नहीं

बिस्तर पे आई तो बिछ गई न आई तो पिट गई
मस्ती का ज़रिया बनूं इतनी भी गुनाहगार नहीं

इंसानियत  की  मृत्यु पे  हसगुल्ले  तुम उड़ाओ
औरत का आस्तित्व दुनिया में होगा शर्मसार नहीं

ज़ज़्बातों से लबरेज़ हूं और  हिम्मत  बेइन्तेहा
अब मर्दों का किरदार इतना भी चमकदार नहीं
-अमृता

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10 DEC 2024 AT 19:57

शहद की मक्खी जैसा बोसा तेरा
डसे तो निशां  छोड़ जाता हैं

जलते है लब कितनी ही देर हरारत में तेरी
ज़हर अपनी हर हद से गुज़र जाता है
-अमृता

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8 DEC 2024 AT 22:19

हो जाएगी रूह फ़ना जब मिलेगी जाँ कनी
इक पल को तो दे दे सनम सुकून ए इश्क़ मुझे
किस बात पर है तना-तनी ......
-अमृता

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8 DEC 2024 AT 14:41

सफ़र से लौट जाना चाहता है
परिंदा, आशियाना चाहता  है।

दर ब दर हो गयी, जो ये ज़िंदगी
जीने का दिल, बहाना चाहता है।

मिल जाए कहीं, ठौर ठिकाना ग़र
तो बस दो पल, ठहरना चाहता है।

डगमगाया हूँ पर हारा नहीं हूँ मैं यारों
फिसलकर फिर संभलना चाहता है।

संगदिली के इल्ज़ाम लगते रहे हम पे
हर इल्ज़ाम को दिल, मिटाना चाहता है।

शिक्वे करें, तो किस से कहें जाकर हम 
तू-तू मैं-मैं में, कहां दिल उलझना चाहता है।
  -अमृता

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8 DEC 2024 AT 0:49

हसीन हूँ, गुलज़ार हूँ, उलझा हुआ मैं राज़ हूँ
मुक़म्मल हो गयी गर, तो कहाँ फिर मैं ख्वाब हूँ

कहकशाँ  में तीरगी का आलम  समाया अगर
इस अगर मगर से परे जलता हुआ आफ़ताब हूँ

ज़रा सा फ़ासला रहने दो दरमियां तेरे मेरे आज
मुआयना कितना भी करो हर बात मैं ही ज़बाब हूँ

मुक़द्दर में होगा मिलना तुमसे तो ज़रूर लिखा हुआ
यगाँ मुलक़ात ए सबब कि शनसाई के लिये बेताब हूँ

मेरे पन्नों में  लिखा है अल्फाज़ ए मोहब्बत 'अमृता'
सरापा कुछ और नहीं मैं फक़त ढ़लता हुआ महताब हूँ
-अमृता

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6 OCT 2024 AT 20:59

हाल ए अर्फ्सुदगी में चांद भी फलक़ छोड़ने को राज़ी हुआ

न जा महताब तुझसे रंगीन सपने सजते है शब-ए-ख़ल्वत में
सूनी सूनी लगेगी हर रात, हम दीवाने है चांदनी पर हैं मरते।।
-अमृता

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6 OCT 2024 AT 20:35

तब्सिरा मेरे गीतों का,  तहसीन ए चर्चा उसका ऐसे
सावन भीगाये खुश्क़ धरा को ,जेठ में बरसकर जैसे...

चटक उठती है कलियाँ, सब्ज़ हो जाते है शज़र ऐसे
भवरों की गुंजन सरगोशियाँ करें, बसंत में मचलकर जैसे...

महकती सबा के झोंके ख्वाहिशों को छेड़ रहे हैं ऐसे
आषाढ़ में टेसू के रंगों से इंद्रधनुष खिला हो सजकर जैसे...

रात की रानी बिखर कर गिरे डाली से जब, मालिन चुने ऐसे
उल्फ़त के धागों से इश्क़ मैंने ज़ुल्फ़ों से बांधा हो गूँथकर जैसे..

एक नक़्श उकेरा है ज़ेहन ने,अनदेखा अनजाना सा ऐसे
कि दस्तक देता कोई सीने पे आगाज़े मोहब्बत का डटकर जैसे
-अमृता

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