19 NOV 2017 AT 16:40

भले ही वजूद मेरा एक बून्द सा हो,पर प्यास पुरे समंदर की रखता हे
बस खो के वजूद ही ये अपना,खुद आफताब हो सकता हे

बाहर को जो में अपने फैल रहा था,अपने ही अंदर क्यों न सिमट जाऊ में अब
दिख राहा ये बाहर जो प्रतिबिम्ब,बिम्ब-सागर उसका अंदर को धरा हे

वजूद मेने जब खोजा खुद का,मिला ये मचलता बदलता एहसासों के प्यालो को
तब जाना ना में हु ना संसार यहाँ पर
यहाँ हे निराकार अदभुत ये निर्मल सी माया

- Thrust of $oul