दरिया में जब डूबते सूरज की शुजाएं पड़ी थी,
लहरों की बाहों में एक रंग मिला था..
पंछियों की आहट में दिन ढल रहा था,
मैंने किनारे पे कोई आवाज़ सुनी थी..
मुड़ के देखा भी था
कहीं कोई चेहरा नजर आए,
कोई आवाज़ दे मुझे भी,
कहीं कोई गले लगाए,
मगर, हवाओं की बातें सुनकर लगता है,
अब कोई नही पुकारेगा..
आवाज़ों के बादल अब चले गए हैं,
बेचैनी का चांद फलक पर आता होगा,
मैं भी अब उन यादों से संजोई बातों के,
पन्नों की मुरझाई नाव दरिया में बहा देती हूं..
ये कहकर..
के बदलने का मौसम था बदल गया।।
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