NR Omprakash Athak   (NR Omprakash "Athak")
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Writer, Poet, novelist and speaker
Joined 8 June 2019


Writer, Poet, novelist and speaker
Joined 8 June 2019
17 MAY AT 23:11

मीरा री तड़प

ब्याजूं बावरी मीरा, मोहन रा नाम ही गाई,
सोना रा सिंहासन छोड़ी, मन में प्रेम री परछाई।
घूंघट हटायो, मोहन रा ध्यान धरायो,
लोगां सूं ठुकरायो, पर सांवरा ने अपनायो।

घूमती नगर-नगर, माटी सूं चून लई,
“कृष्णा! थारी ओ मुरली बिन जी ना लागे कई!”
बंसी रा स्वर ना सुनायो, तो मीरा रो प्राण सूखे,
“प्राण देऊं सांवरा! पर तू इक बार आ मुख देखे।”

ना ठौर बची, ना ठिकाणो, मीरा तो रमता जोगण,
हर अश्रु कहे – “मोहन! मी तो थारी भोगण।”
जग हंसे, घर वाले छोड़े, पर तड़प मीरा ने साधी,
हर आह में कृष्णा रा नाम, हर सांस में पीर-बाधी।

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17 MAY AT 22:49

मीरा रा विरह

(मोहन बिन मीरा, ज्यूं दीप बिना बाती)

बण-बण डोले मीरा, हिवड़ा सूं पीर भरी,
कहवां छिपग्या सांवरा, थारै बिना नजर ना तरी।
बंसी री धुन ना गूंजे, सांझ सवेरा सूना,
मीरा रो मन रोवे, थारा बिना जगवीना।

कांचली री काया झरगई, मोहन रा नाम रह गयो,
जगत ने ठुकरायो, पर प्रेम थारो कह गयो।
अक्ष रा मोती गूंध-गूंध मीरा गावे गीत,
हर सिसकारी में बसी, सांवरा री मीत।

"थूं आवे, या मौत आवे", मीरा रा संकल्प,
मोहन बिन मीरा, ज्यूं वृक्ष बिन मूल जड़ छल्प।
ना सुआस बची, ना चित्त शांत, ना नेणां में नींद,
मीरा रो विरह साचो, हिवड़ा में गूंजे बृजबंध।

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16 MAY AT 22:41

"सुनी राहें"

सुनी राहें, खाली गली,
सपनों का काफ़िला भी अब थक चुका।

मुसाफ़िर हूँ, पर मंज़िल कहाँ,
हर मोड़ पर मेरा साया मुझसे बिछड़ चुका।

चीखूँ भी तो कौन सुने?
ख़ामोश दरख़्तों का जंगल है आसपास।

उम्मीदें भी जैसे रेत बनकर,
हाथों से फिसल चुकी हैं हर सांस।

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16 MAY AT 22:39

"टूट कर भी बिखरा नहीं"

टूट कर भी बिखरा नहीं,
इस दिल ने दर्द भी चुपचाप सहा।

अंधेरों ने घेरा लाख बार,
फिर भी एक चिंगारी अंदर जला।

हर ज़ख़्म ने दिया इक नया सबक,
हर आँसू ने दिल को और बड़ा किया।

थक कर गिरा तो सही, मगर,
हर बार खुद को फिर से उठा लिया।

कोई सुने ना सुने, कोई समझे ना समझे,
फिर भी अपने दर्द से दोस्ती कर ली।

क्योंकि जाना मैंने —
सबसे गहरे अंधेरे के बाद ही सूरज निकलता है कहीं।

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16 MAY AT 22:35

"तेरी यादें"

तेरी यादों का मौसम बरसता रहा,
हर सिहरती रात मुझे डसता रहा।

तेरी खुशबू बसी थी मेरी साँसों में,
बिछड़ के भी तू मुझमें बसता रहा।

कितनी दफ़ा खुद को समेटा मैंने,
पर दर्द कोई हर रोज़ चिरता रहा।

तू गयी तो साथ ले गयी सब कुछ,
मैं खाली सा इक साया बनता रहा।

ना सवाल बचे, ना जवाब रहे,
बस तेरा नाम लबों पे सजता रहा।

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16 MAY AT 22:25

"बिखरते रहे"

बिखरते रहे हम, सँवरते रहे,
ज़ख़्मों के मौसम में निखरते रहे।

तन्हाइयाँ जब दिल पे छा ही गईं,
अश्कों की नदियों में उतरते रहे।

कोई पूछता भी नहीं हाल-ए-दिल,
हम फिर भी मुस्कान बिखरते रहे।

थक कर भी हम चुप न हो पाए,
टूट कर भी ख़्वाब संवरते रहे।

हर चोट पे दिल ने ये सीखा सदा,
गिरते रहे हम पर सँभलते रहे।

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11 MAY AT 21:27

"जोगन"

किस स्वर ने मन बाँधा है,
किस छवि ने ये दीप जलाया…
न नाम मिला, न रूप मिला,
पर प्रेम ने राग सुनाया...

ना मांग सजी, ना बिंदी लगी,
ना बंधी कलाई में चूड़ियाँ…
बस मोहन की याद लिपटी रही,
साँसों में बसी उन की बंसीयाँ...

प्रेम जहाँ मौन हो जाए,
वहाँ ब्रह्म भी झुक जाए…
ना राधा रही, ना कृष्ण रहा,
बस 'हम' बनकर सब कुछ समा जाए।

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11 MAY AT 21:09

थके हैं पाँव, पर मन नहीं, ये बस एक क्षणिक विराम है,
अभी न ठहरा मेरा सफ़र, अभी कहाँ परिणाम है?
नई सुबह की आस लिए, फिर लड़ने को तैयार हूँ मैं,
अभी अधूरी है ये कहानी, अभी अधूरा स्वाभिमान है।

जो संग चले थे राहों में, वो मुश्किल में मुकर गए,
रणभेरी जब सच बोलेगी, सब अपने ही बिखर गए।
पर मैं अकेला लड़ लूँगा, हार नहीं स्वीकार मुझे,
या तो सपना जीतूँगा मैं, या फिर खुद को वार दूँ।

थकावट मेरी पहचान नहीं, मेरे हौसले थमे नहीं,
जो राहों में कांटे बोए, उनके भी डर से डरे नहीं।
अपने भी यदि रोक बनें, तो स्पष्ट कर दूँ राह उन्हें,
ये संग्राम है सत्य का, न रोको मेरी चाह उन्हें।

कहाँ ये संघर्ष ले जाएगा — क्यों डरूँ मैं सोच सोच?
जब तक जज़्बा साथ है मेरे, कोई सपना हो न खोच।
न हारा हूँ, न हारूँगा, चाहे जो परिणाम हो,
मेहनत मेरी पूंजी है, यही मेरा प्रणाम हो।

पुनः उठूँगा हर गिरावट से, फिर से शुरू ये संग्राम,
सपनों का भारत रचने को, फिर से बनूँ एक नव-विक्रम।
मिले सफलता या ना मिले, अब वरदान न माँगूँ मैं,
बस कर्मभूमि में दृढ़ रहूँ, यही संकल्प ठान लूँ मैं।

युवाओं की यही पुकार हो —
न थमना है, न रुकना है,
बस मंज़िल की ओर बढ़ते जाना है।
विजय अभिलाषा, विजय अभिलाषा, अमर हो मेरी विजय अभिलाषा!

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11 MAY AT 10:38

आँसू भी बहें लेकिन, आवाज़ न हो कोई,
इस दर्द को दुनिया से अब क्या ही उजागर हा।

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11 MAY AT 10:37

हम लफ़्ज़ भी चुनते हैं, डर-डर के मगर अब तो,
साया भी ज़रा बोले, तो लगता कि बेरहा है।

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