उन खामोशियों का क्या करूँ
जो अक्सर शौर मचाती हैं
खलबली मचा देती हैं हवाओं में
मन को चीर कर चली जाती हैं
कितने ही शब्दों को खाली कर दिया
ये नीरस खामोशी हर ख्याल निगल जाती है
नहीं सिमटती ये किसी एक किताब में
नाजाने ये कितनी ही रंगशाला सजाती हैं
अलग ही सफर है खामोशियों का
जहाँ न विराम है ना अंत, ना आदि, न आनंद
है तो बस अनन्त, अनन्त, अनन्त
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