कई सिरो का छोर,पकड़ा है अकेली जान से,
बग़ावत कर दी है ज़हन ने,दिल-ए-परेशान से।
डूबने लगता है इसकी दस्तक से घबरा के दिल,
तन्हा रात का खौफ,सताने लगता है,शाम से।
फिर भी ,हम नही करते है ,सच कभी कबूल,
कि अपने ही घर मे ,जिये जा रहे है,मेहमान से।
हासिल है एक पल का सुकून ,नई गजल से,
और कुछ नही मिलता है इस बेलगाम दीवान से।
बग़ावत कर दी है ज़हन ने,दिल-ए-परेशान से.......
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