हूं तो एक खुली किताब की तरह ,
ना जाने क्यों कोई पढ़ नहीं पाता।
अब नहीं गुजरना तम के साये से ,
ना जाने क्यों यहां सहर नहीं आता।
ख़्वाबों में डोलना चाहता है ये दिल ,
ना जाने क्यों कोई बांसुरी नहीं बजाता ।
अल्फ़ाज़ से ज्यादा जज़्बात लिखे पन्नों पर ,
फ़िर क्यों कोई इन्हें समझना नहीं चाहता ।
सफ़र-ए-जिंदगी में कब तक चलूं अकेले ,
ना जाने क्यों राही साथ नहीं निभाता ।
कितनी ही ज़िंदगियों का किरदार हूं मैं ,
ना जाने क्यों कोई मेरा इश्क़ ना बन जाता ।
ख़ामोश तन्हाइयों से कब तक लडूं अकेले ,
ना जाने क्यों कोई मेरा हमदर्द ना बन जाता ।
हूं तो एक खुली किताब की तरह ,
ना जाने क्यों कोई पढ़ नहीं पाता।
NAINA ❤️❤️
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