ऐ हवा, तुम क्यूँ नहीं हमसे दूर जाती हो,,
मेरे चारो दिशाओं में तुम ही तुम रहती हो,
जहाँ देखता हूँ, वहीं दिख तुम जाती हो.
तुम्हारे बिना न तो मेरा जीना है,
न ही तुम्हारे बिना मरना है.
मैं जी लूँगा तुम्हें ख्वाब समझकर ,
मैं जी लूँगा तुम्हें दर्पण समझकर,
मैं जी लूँगा तुम्हें मुस्कान समझकर.
जब तुम गुजरती हो मेरे सामने से
मानो मैं खाली सा पड़ जाता हूँ...
तुम्हें सोचता हूँ, ख़ुद को कोश्ता हूँ,
कभी छिपता हूँ, तो कभी निडर हो जाता हूँ,
और तुम्हारे पीछे उड़ता-चला जाता हूँ...
पता होता तुम्हें भी है,
लेकिन इशारा होता सिर्फ मेरा है.
कैसे कहूँ तुम्हें, कि तुम मेरी हो चुकी है,
हकीकत में न ही सही,
ख़यालों और ख्वाबों मैं ही सही.... (2)
जब मैं सोचता हूँ तुम्हें,
लगता जैसे पतंग की डोर छूट गई हो...
कलम की रफ्तार बढ़ गई हो...
हवा मैं तीर छूटने लगी हो...
मानो सोच को रफ्तार मिल गया हो.
- Satyam_Kumar_Singh- ✍️Satyam Devu💞
27 AUG 2018 AT 11:55