थक गए करते-करते काम,
अब थोड़ा आराम हो जाए...
बस तेरा चेहरा देखूं,
और दिन मेरा शाम हो जाए...
तेरे ख्वाबों की छाँव तले,
हर दर्द भी आराम हो जाए,
तुम जो आँखों से पिला दो,
तो वही मेरा इनाम हो जाए...
थक गए करते-करते काम,
अब थोड़ा आराम हो जाए...
वैसे तो पीता नहीं हूँ मैं,
पर तुम्हारी नज़रों के जाम के लिए,
हम तो हर रोज़ बदनाम हो जाएं...-
एहसास की दुनियां कलम से दिखाता हूं ।
शायर हूं यारों जज़्बात कलम से समझा ... read more
गले से लगकर, सारे ग़म सुनाओ मुझे,
यूँ ही किसी बहाने से, अपने अल्फ़ाज़ सुनाओ मुझे...
ज़ख़्म दिखा ना सको तो ज़ख़्म दे जाना मेरे जिस्म पे,
कुछ भी करके अपने दर्द से वाक़िफ़ कराओ मुझे...
छुपा के रखा है जो तूने सीने में कहीं,
वो टूटी हुई साँसें, वो किस्से, सुनाओ मुझे...
मैं दर्द में भी तेरे साथ चलना चाहूं,
बस इक दफ़ा अपने साये में समाओ मुझे...-
कोई मशवरा हो तो दे दो मुझको,
मैं कारनामे करने आ रहा हूँ...
लोग डगमगा जाते हैं सीधे रास्ते पर,
मैं लहरों पे चलने वाला हूँ...
गिरकर उठना सीख चुका हूँ,
अब डूब के तैरने वाला हूँ...
इस बार तो मैंने ठान लिया है,
मैं आगे बढ़ने वाला हूँ...
मैं सीखूंगा, मैं जीतूंगा,
मैं हार न मानने वाला हूँ...
अब तुम बस मेरे कारनामे देखो,
मैं लहरों पे चलने वाला हूँ...-
जो मुझे मिला दर्द, क्या वाक़ई वो मेरे हिस्से में था...?
जो मुझसे छीना गया, कैसे मान लूं कि वो न मेरे किस्से में था...?
कोई सबूत दो,
कोई दस्तख़त दिखाओ,
कोई मुकम्मल दस्तावेज़ लाओ जनाब...(२)
जो दर्द से भीगी स्याही में डूबा पन्ना, जोड़ा मेरी ज़िंदगी की किताब में ...(२)
कैसे मान लूं, कि वो मेरी ज़िंदगी के किस्से में ही था...?
¿...क्या वो दर्द मेरे हिस्से में ही था,
वो दर्द मेरे हिस्से में ही था...?-
ये जज़्बात रेत से होते हैं,
फिसल ही जाते हैं दामन से...
जो फिसलें अगर कभी मछली जैसे,
तो लौटकर नहीं आते दिल के आँगन में...
बहा ले जाती है वक़्त की धारा,
जकड़ लेते हैं बंधन बांहन में...
रेत की मछली बनकर फिसले मन,
न कोई थाम सके इन्हें हाथन में...-
मैं लिख दूँ जो कर्म तुम्हारे,
तो लोग थूकने आ जाएंगे तुमपे....
इस्तेमाल किया, ठोकर दी,
और खुद को खुदा समझा बस तुमने....
ना देखा दिल किसी का,
ना त्यागों का मोल चुकाया तुमने.....
बैठे रहे बनके गुनाहों के देवता,
अंत में क्या ही पाया तुमने…
-
अंत प्रेम का कष्ट ही देगा,
प्रेम त्यागना ही बेहतर है।
ख़ुद को भुलाकर,
किसी और को ख़ुदा मानना,
ये अलबेला मंजर है।।
जहाँ चाहत भी बेख़बर है,
जहाँ हर मुस्कान में डर है।
दिल जो था कभी अपना —
अब एक वीराना बिस्तर है।
जिसे समझा था रौशनी,
वो बस एक बुझता सा पत्थर है...-
एक फूल को बोला था तुमने,
तुम पवित्र हो,
तुम साफ हो,
तुम निष्छल हो,
तुम निष्पाप हो।
तुम लगे रहो इस डाली पर, तुम महकाते रहो ये उपवन मेरा...
ना जाना कहीं तुम, बनाओ तुम यहीं बसेरा...
फिर एक पुजारी आया पास तुम्हारे,
तुमने उपवन के सारे फूल तोड़ डाले...
सोचा नहीं इस निष्पाप फूल के बारे,
क्षण भर में बदले विचार तुम्हारे...
क्यों तोड़ा फूल तुमने, जिसको तुमने निष्पाप कहा...
क्यों दे दिया किसी और को अपना प्रेम, जिसे तुमने साफ कहा...
क्यों ये विडंबना है तुममें बसती...
क्यों तुम्हारी हल्की है हस्ती...
क्यों फिसल जाते हो अपनी ही बातों से...
क्यों लुटाया मुझे किसी बेज़ार पे...
मैं तो तुम्हारा ही प्रेम था...
तुम्हारे प्रेम में समर्पित था...
क्यों मुझे तुम किसी और को समर्पित करते हो...
क्यों अपना कहके भी मुझे पराया करते हो...
क्यों अपना कहके भी मुझे पराया करते हो...-
Title: "You Called Me Pure..."
You once told a flower, so tender and true,
“You are sacred, you are pure in hue.
You're gentle, you're without a stain,
Untouched by sorrow, free from pain.”
"Stay here, upon this branch so high,
Bloom for me beneath the sky.
Don’t wander far, don’t disappear —
Let this garden be your home, right here."
But then one priest came near your way,
And you plucked the blooms in full array.
You never thought of that innocent one,
Whose trust in you now lies undone.
Why break the flower you called divine?
Why give your love where it’s not aligned?
Why does this irony dwell in you?
Why does your light feel false, untrue?
Why do you slip from your very own vow?
Why gift me to those who know not how?
I was the love you once embraced,
In your devotion, I was placed...
Why now give me to someone new?
Why call me yours, then bid adieu?
Why call me yours...
and treat me like I'm never due?-
शीर्षक: "चलो यहाँ से, अब घर वापस चले जाते हैं..."
इस शहर में दिल नहीं लगता,
चलो यहाँ से अब घर वापस चले जाते हैं…
चंद दोस्तों को बाँधे रखा था मैंने,
वो भी अब दामन छुड़ाना चाहते हैं…
तो अब आईनों से मैं बातें करता हूँ,
क्योंकि यहाँ लोग समझ नहीं आते हैं…
ये शहर अपना नहीं लगता मुझको,
चलो यहाँ से अब घर वापस चले जाते हैं…
उम्मीदें बोता सुकून की मैं तो,
पता नहीं यहाँ कैसे उदासी के दाने उग जाते हैं…
सड़कें भी सब अजनबी सी लगतीं,
यहाँ सभी रास्ते ग़लत नज़र आते हैं…
यहाँ हर शोर में तन्हाई गूंजे,
और ये कान बस सुकून पाना चाहते हैं…
ना कोई जाने, ना कोई आहट हो,
चलो यहाँ से अब घर वापस चले जाते हैं…-