A sister is a dearest friend❤️, a closest enemy😅,
and an angel at the time of need💎
During life’s highs and lows, right or flaws, hurts and happiness.
A sister is always there, She is advisors,
she is teachers, and best of all the people with whom i can talk about anything❤️-
🔥 𝗣𝗹𝘇 𝘁𝘂𝗿𝗻 𝗼𝗻 𝗺𝘆 𝗡𝗼𝘁... read more
हक़ीक़त है, ख़्वाब में खुदको जगा रखा है
मुसलसल फासलों में खुदको युहीं छुपा रखा है
है स्याह सी रात मयस्सर इक सम्मा भी नही
शहर सबनम से गुलाब को युहीं भीगा रखा है
वजूद मेरा महज़ पानी का क़तरा सा ही तो है
मगर होशलों से चाँद को ज़मीन पर बिठा रखा है
सुनो मेरे लब-बस्ता मे पोशीदा है रम्ज़ कई
खामोशीयाँ- राफ़ाक़ते, क़ुल्फते मे छुपा रखा है
इक अरसे से खुदका चेहरा सवारा नही है मैंने
बस ख्यालों में तेरे मुसलसल खुदको सजा रखा है
मेरी रूह क़ैद में है, क़लब भी क़ैद में है तेरे
लफ्ज़-बा-लफ्ज़ लबो को खामोशी में दबा रखा है
सब अपने ही है, बा-शर्ते गैर है इक क़तरा-क़तरा यहाँ
शाहिद हर इक नफ़्स को जफ़ाओं से युहीं बचा रखा है-
उस आख़री ख़त में, मैंने लिखे थे अलफ़ाज़ कई
तुमने महज़ पढ़ कर अनदेखा किया, रहने दीया राज़ कई........
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माँ को लफ्ज़ो में बयान कर पाना कहाँ मुमकिन है?
उनकी तरह हमसे पाक मोहब्बत कर पाना कहाँ मुमकिन है
वो जो आँखों से बहते बेतहासा अश्कों के कतरे
मगर फिर भी उन लबों पर मुस्कान राख पाना कहाँ मुमकिन है
हमने सोचा है कई दफा के कोई जीन होता! कोई चिराग होता
मगर माँ जैसी, हमारी हर विश पूरी कर पाना कहाँ मुमकिन है
हाँ बहोत लोगो ने कहाँ है, के मैं लिखता अच्छा हूँ
मगर माँ को स्याही भरे अलफ़ाज़ में बता पाना कहाँ मुमकिन है
हाँ जन्नत का ज़िक्र सुना है हर इक शख्स ने तफ्तीश से
मगर माँ के क़दमो से खूबसूरत जन्नत कहाँ मुमकिन है
हाँ वो रेस्टॉरेंट, वो होटल, वो ढाबा, वो शेफ का खाना
मगर माँ के हाथों सा लज़ीज़ खाना कहाँ मुमकिन है
रोटी न रहने पर भी कहे, बेटा तुम खाओ बहोत रोटियां है
खुद भूखी रह कर, माँ के तरह झूठ बोल पाना कहाँ मुमकिन है-
कुछ बिखरे पन्नों पर, मैंने सिफारिश लिख दी है
मिलने को क़लब बेचैन था, मैंने गुज़ारिश लिख दी है
उन नज़रो से कह दो, आँखें दो-चार करना है
रूबरू हो चश्म-ए-यार मेरे,मैंने ख्वाहिश लिख दी है
ताबीर-ए-मुस्तक़बिल हैं, उनकी यादें दरिया है
लबालब हो कर, मैंने समुन्दर की पैमाईस लिख दी है
वो ज़ुल्फ़ों के आगोश में हर पल रहना है मुझको
वो मक्खन की स्याही से, मैंने फरमाइश लिख दी है
तुम्हारे हर तर्ज़ में सबनम की सोखीयाँ तो है
मेयार-ए-मोहब्बत में मैंने आज़माइश लिख दी है
ला-हासिल ख्वाब मयस्सर हो जायेंगे इक दिन
खुदा को अर्ज़ीयों में, मैंने तमाम नुमाइश लिख दी है
ये रिवायत, ये रिफाक़त ये शाइस्तगी ये नज़ाकत
हर अदा हमनवा हो जाने की ,मैंने गुंज़ाईस लिख दी है-
ज़ाहिलियत का दौर है, मासूमियत संभाल कर रखना!
यहाँ तुम्हारी खामोशियों को भी, साज़िस का ज़र्फ़ बताया जाएगा-
मैं रम्ज़-रम्ज़ आँखों में ख़्वाब लाया हूँ
बदन का क़तरा-क़तरा तोड़ गुलाब लाया हूँ
तसव्वुर आया है के तुम हो फ़लक में कहीं
क़ाईनात से बगावत कर महताब लाया हूँ
महरूम हो तुम शबे-रौशनी से तो क्या
आसमान से ज़मीन पर अफ़ताब लाया हूँ
सुना है वो कोई बेशक़ीमती तीलीस्मि सी है
मैं कुदरत से चुरा कर कोहिनूर नायाब लाया हूँ
वो ज़ुल्फो सा हसीन कोई दिलकश नहीं
आग़ोश में उन्हें सवारने का इंतेखाब लाया हूँ
मेरी साँसे तक भी तेरी ज़िस्म से फ़ासले में रहेगी
बा-अदब मैं रूह से इश्क़ वाला नक़ाब लाया हूँ
न रंजिशे-तंज़ रहेंगी, न शिकायतें रहेंगी
तफसील में तौबा की सदा बे-हिसाब लाया हूँ-