Mahesh Maahi   (महेश "माही"...✍️)
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Joined 16 May 2017


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13 HOURS AGO

मैंने फ़रेब देखा है
झूठ की आँखों में।
सच की तरह कभी - कभी
बड़ी कड़वाहट के साथ मिला है वो मुझे..।

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14 HOURS AGO

तुम अब भी नहीं बदले
आज भी वही आवाज है
वही सादगी है अदाओं में
वही पैजन की छम छम
वही खुशबू फैली है, फ़िज़ाओं में।

जाने कितने बरस बीत गए
कितने आये, कितने मीत गए
पर तुम्हारी छाप वही है
मेरे दिल में अब भी कहीं है।

कितनी रातें, तुम बिन काटी
कितनी शामें, हमने छांटी
तुम्हारी आहट सुनने को माही!
कितने दर्द, दर-दर बाँटे।

अब के जो मिले हो
तो ठहर जाना वक़्त की तरह
"तुम अब भी नहीं बदले"
बस ये बात कह देना,
हर वक़्त की तरह..।

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28 JUN AT 8:25

एक पूरा चाँद,
बादलों भरा आसमान
कुछ अधूरे अरमान
एक चेहरा
एक ख़्वाब
बस यही किस्सा है
बीती रात का..।

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22 JUN AT 0:10

तुम्हें गोद में सुलाते-सुलाते,
अक्सर सो जाता हूँ बैठे-बैठे।

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21 JUN AT 20:39

बरसती आग के अंगारों के बीच
जाने कौन रहा है हार या जीत
दो धर्मों की लड़ाई में
इंसानियत है रो रही
देखो आज है मानवजाति
अपना वजूद खो रही।
है कहाँ लिखा
आपस में बैर रखना?
है अगर हर कोई सच्चा
तो सबकी सच्चाई को है सच्चा बताना..।
बस धुंआ धुंआ रह जाना है
न बचना कोई खजाना है
फिर क्यों है सब लड़ रहे
क्यों रिश्ते हैं सारे बिगड़ रहे
क्यों हो रही मानवता शर्मसार
इस बरसती आग में आखिर
किसकी होगी जीत या हार..?

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5 JUN AT 0:05

उसने उसे जीत लिया
जिस पर मैं सब कुछ हार चुका था..।

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4 JUN AT 8:27

कल रात तेरे कॉल के बाद
कुछ देर जागता रहा मैं
नींद के आगोश में
करवटों में भागता रहा मैं।
कुछ बड़बड़ाहट में लिख डाला
कुछ घबराहट में लिख डाला
पढ़ोगी फिर तुम मुझे, ये सोचकर
तुम्हारी तस्वीर को ताकता रहा मैं।
कल रात तेरे कॉल के बाद
कुछ देर जागता रहा मैं..।
कब नींद आयी
कब दिन हुआ
आँख खुली
तो हांफता रहा मैं।
बड़ी बेसब्र रही रात मेरी
चादर की सिलवटों ने बताया मुझे
तेरी नामौजूदगी में माही!
सारी रात बिस्तर को नापता रहा मैं..।
कल रात तेरे कॉल के बाद
कुछ देर जागता रहा मैं..।

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2 JUN AT 9:30

अब के जो मिलने आऊँ
तो संग मेरे वापिस चले आना
भीड़ में भी सब सूना-सूना सा लगता है
कि तेरा शहर अब अजनबी सा लगता है।

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17 APR AT 22:31

हमने सोचा कि वो हमारी हर बात समझ गए
पर जाने वो क्या समझ गए..?

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16 APR AT 20:25

पता नहीं कब कैसे
शाम ज़िंदगी की ढल गयी।
अभी तो सुबह हुई थी
और चाह मचल गयी।
वक़्त का पड़ाव था
और उम्र ढल गयी।
सोच-सोच में बीता जीवन
और रात निकल गयी।
पता नहीं कब - कैसे
शाम ज़िंदगी की ढल गयी।

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