"प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है, कंचन पर कभी न सोता है।
रहता वह कहीं पहाड़ों में, शैलों की फटी दरारों में।
"होकर सुख-समृद्धि के अधीन, मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन, करते मनुष्य का तेज हरण।
नर विभव हेतु लालचाता है, पर वही मनुज को खाता है।
By - रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर)
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8 JUN 2019 AT 9:50