दोहरे धागे 🍂   (Khushi Pandey)
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Joined 8 July 2020


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Joined 8 July 2020

जन-जन हृदय प्रभु युक्ति सी,
नई ज्योति अलौकिक भक्ति की!
है हर विरोध का विराम,
गूँजा चारों ओर प्रभु जय श्री राम!
तिथि-समय-दिन विचार कर,
प्रभु आ गये निज धाम पर!
क्षण में घुला त्रेता सा-रस,
अमृत्व है प्रभु का दरश!
जन्मों-जन्म का साज है,
इतिहास का जो आज है!
नयन-नीर संग शुभागमन,
हरषें धरा,नल-नील,मन!
नयनों में सबके के नीर है,
हृदयों में कैसी पीर है!
इस क्षण को भी मैं कह सकूँ,
मेरी लेखनी में अब ना धीर है!

"जय जय श्रीराम"

-Khushi Pandey

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संसार के वाक्यांशों के मध्य
मैं मिलूँगी तुम्हे शब्दों के उस विराम पर
जहाँ चुनकर अक्षर तुमने पूर्ण कर ली हो,
"परिभाषा" मेरे वर्णमाला रूपी जीवन की !

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कई बार हृदय की भाँति
"पेड़ के नीचे पड़ी बेंच"
को भी रहती होगी
प्रतीक्षा प्रेम की,
"प्रेम" जो अरसे से
बंद खिड़की को
पार कर यहाँ आ ठहरे
अपने पुराने कुछ
किस्से दोहराने,
परन्तु रह जाती होगी
झरते पत्तों के साथ
ये प्रतीक्षा भी अधूरी,
साथ ही वहीं-कहीं
चिन्हित रह जाती होगी
वो बंद खिड़की,
और सम्भवतः
हृदयों के आघात भी !

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"पेड़रूपी दीवारें"

अनुशीर्षक में पढें!




-Khushi Pandey

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मेरी, तुमसे अपनी भावनाएँ
कहने की प्रतिशतता इतनी निम्न रही,
जिसे मेरा हृदय
एक मिथ्या से अधिक और कुछ ना स्वीकार सका !

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किताबें करती होंगी स्नेह
एक धीमी रोशनी के बीच,
जब थकी आंखें
मेज पर टिका लेती हों सिर!
एकाएक खड़खडा जाते होंगे
शब्दों में उलझे पन्ने
तीखी हवाओं से बचाने को!
खिड़कियों में रहती होगी थकावट
ओस में जो ताकती रह गयीं,
पेन में फंसी उंगलियां
अपने स्थिर होने के लिए!
रात भर किताबें पढ़ लेती होंगी
प्रयासों की अल्पता का
कम होते जाना,
वैसे ही सुबह की रोशनी में समिटते
इन किस्सों को भी प्रतीक्षा रही होगी
कभी अपने लिखे जाने की!
कई बार रद्दी कही गयी कॉपियों को भी
रहती होगी आस
आते-जाते उन पर जमी धूल के
हाथों से साफ होने की!
उलटती-पलटती किताबों को
शायद लगे होंगे कई बरस,
अपने प्रेम की नियतता समझाने में!
इसी तरह पेन देता होगा खबर शब्दों को,
कविताओं में पिरोये जाने की!

-Khushi Pandey

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कई एक कविताएं तलाशती रह गयी
उन आँखों को
वो जिन्हें कवियों ने अपना प्रेम कहा,

यद्यपि उन्हें जीवित रखा प्रेमियों ने
जो प्रेम में उन्हें पढ़ जाते रहे!

-Khushi Pandey

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मेरी कल्पनाओं पर निरंतर
समर्पित हैं, वो "क्षण"
जो बीते तुम्हारे साथ,
कल्पना में आये बिना ही !

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प्रेम जो आया सरलता के हिस्से,

उसने अल्प और अनन्त से परे
जाना परस्पर पूरक होने के बिन्दु को !

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प्रेमियों के भाव, मेल ना खा सके
सामाजिक रीतियों से...

अत: उनके लिए जीवन और सुख का
कोई सीधा सम्बन्ध ना रहा !

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