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Bahut kuch hai kehna aapse ,per chalo apne poetry ke madh... read more
तेरे जो करीब आ रहा हूँ
में खुद से ही दूर हो गया हूँ
की उसने हमेशा बेवफाई
और उसका ही सजदा कर रहा हूँ
क्यूं चुपके से वार तू है करता
तेरे ही तो सामने खड़ा हूँ
मेरी ही क़सम वो खा रही है
क्या मैं उसे लग रहा बुरा हूँ
लहजा ये मिरा है खानदानी
तुझको भी मैं आप कह रहा हूँ
तू गौर से देख ले जाने जाना
मैं दिल से तुझे ही चाहता हूँ
अब तुम भी मुझे भुला दो जानम
मैं खुद को भी अब भुला चुका हूँ
कैसे मैं यक़ीं दिलाऊं तुझको
मैं अपना यक़ीन खो चुका हूँ
अब और नहीं सितम करो जान
मैं कह तो रहा हूँ मर चुका हूं
मक़्ते पे पहुँच के हूँ परेशाँ
सबकुछ तो में यार कह चुका हूं
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तेरे जो करीब आ रहा हूँ
में खुद से ही दूर हो गया हूँ
की उसने हमेशा बेवफाई
और उसका ही सजदा कर रहा हूँ
क्यूं चुपके से वार तू है करता
तेरे ही तो सामने खड़ा हूँ
मेरी ही क़सम वो खा रही है
क्या मैं उसे लग रहा बुरा हूँ
लहजा ये मिरा है खानदानी
तुझको भी मैं आप कह रहा हूँ
तू गौर से देख ले जाने जाना
मैं दिल से तुझे ही चाहता हूँ
अब तुम भी मुझे भुला दो जानम
मैं खुद को भी अब भुला चुका हूँ
कैसे मैं यक़ीं दिलाऊं तुझको
मैं अपना यक़ीन खो चुका हूँ
अब और नहीं सितम करो जान
मैं कह तो रहा हूँ मर चुका हूं
मक़्ते पे पहुँच के हूँ परेशाँ
सबकुछ तो में यार कह चुका हूं
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तिरी गलियों से हो कर आ रहे हैं
गुज़िश्ता लम्हे दिल धड़का रहे हैं
किसी की बेवफ़ाई का था चर्चा
न जाने आप क्यूँ घबरा रहे हैं
बिछड़ कर भी तुझी में जी रहे हैं
तिरी यादों से दिल बहला रहे है
तुम्हें भूले ज़माना हो गया पर
न जाने क्यूँ तुम्हें दोहरा रहे हैं
किसी की याद का मौसम है शायद
पुराने ज़ख़्म फिर तड़पा रहे हैं
मोहब्बत फिर से हमने कर के देखी
मगर इस बार भी पछता रहे हैं-
हमारे बीच जब तक 'हम' न होंगे
दिलों के फ़ासले ये कम न होंगे
अगर तू मेरी ख़ामोशी को समझे
तो फिर ये फ़ासले बाहम न होंगे
ज़रा सी चोट पर ही गिर गया तू
तिरे जैसे कभी रुस्तम न होंगे
ज़रा सी बात पर मुँह फेरता तू
तेरे जैसे कभी हमदम न होंगे
हमीं में ख़ामियाँ होंगी जहाँ की
जा तेरे रास्ते अब हम न होंगे
महक आती है तुझसे अब किसी की
बता क्यों तुझसे हम बरहम न होंगे
जो तू जाए तो बस ये याद रखना
सभी होंगे वहां पर हम न होंगे-
न पूछ मुझसे मैं किस राह पर था हिजरत में,
मिले हैं ज़ख़्म बहुत हम-सफ़र की चाहत में
न है वो बात रक़ाबत न ही अदावत में,
वो साज़िशें जो छुपी हैं तेरी मुरव्वत में
कभी जो हर्फ़ थे गुम मेरी ही हिकायत के
वो ज़ख़्म बन के बरसते रहे इबादत में
वो लोग जिनकी नज़र थी सदा मुनाफ़े पर
वो तौलते रहे जज़्बात को भी दौलत में
मैं बेख़ुदी में ख़ुदी को गँवा चुका होता
अगर न खो गया होता तेरी मोहब्बत में
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डीपी मिरी देखे बिना जाने वो कैसे सो गया
कल तक जो मेरा यार था वो आज दुश्मन होगया
कॉमेंट करता ना था जो मेरी किसी भी पोस्ट पर
वो आज कैसे यार अब मेरा दिवाना हो गया
वो फ़ोन को तकिया बना जो घंटों बातें करता था,
अब ब्लॉक कर के चैन से खर्राटे भर के सो गया
कहता था जोड़ी अपनी ये कॉलेब में हिटजाए गी
देखा जो फॉलोवर्स क्यों वो झट से पीछे हो गया
ठरकी है ये अल्गोरिदम फीमेल को आगे करे
था वायरल का सपना जो सपना ही अब तो हो गया
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चूल्हा बुझा था शाम से , रोटी का कोई टुकड़ा नहीं,
बच्चा था भूखा रातभर, कुछ भी मगर बोला नहीं
माँ की नज़र तकती रही, ख़ामोश गलियों की तरफ़,
उसको दिलासा दे सके, ऐसा कोई आया नहीं।
"बाबा की राहें तक रही, आँसू छुपाए रातभर"
"दस्तक किसी ने दी नहीं, कोई भी घर लौटा नहीं"
सूखी हुई रोटी मिली, वो भी सनी थी धूल में,
"माँ ने छुपाकर रख लिया, मैंने भी ये देखा नहीं
सबने कहा माँ मर गई, बस एक रोटी के लिए
मैंने कहा माँ सो गई, बाक़ी तो कुछ बदला नहीं
जिसने जहाँ में हक़ दिया, सबको बराबर जीस्त का,
क्यूँ मुफ़लिसों की रूह पर, कोई करम करता नहीं।
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