सफ़र में हम जो रहते है तो मौसम भी बदलता है
समुंदर की जो ख़्वाहिश हो तो दरिया भी मचलता है
कभी अश्कों में ढलता है, कभी लफ़्ज़ों में ढलता है
कोई उम्मीद का दीपक मिरी आँखों में जलता है
बसी है रूह में मेरे तिरे साँसो की खुशबू यूँ
जूँ सहरा में कोई पौधा बिना बारिश के पलता है
समुंदर से किनारा कर के में साहिल पे बैठा हूँ
मगर दिल का सफ़ीना आज भी लहरों पे चलता है
मिरी ख़ामोशी को कैफ़ी भला अब कौन समझेगा
तिरा जाना मुझे ए यार अब हर पल ही खलता है-
"हम में ही रही होगी, कोई तो कमी शायद,
जो उसने किया होगा, अच्छा ही... read more
मैं क़िस्मत आज अपनी आज़माना चाहता हूँ
मैं दुश्मन को गले अपने लगाना चाहता हूँ
हुनर अपना चिरागों को दिखाना चाहता हूँ
मैं अपने अश्क से दीपक जलाना चाहता हूँ
वो जो बहकी निगाहों से मुझे यूं देखती है
उसे शादी शुदा हूं मैं बताना चाहता हूँ
इधर ही जिंदगी है और इधर ही मौत भी है
मैं इन दोनों को चाय पे बुलाना चाहता हूँ
बड़े मायूस करते है खुदा ये तेरे बंदे
इन्हें उम्मीद का मंज़र दिखाना चाहता हूँ
अगर मुमकिन हो तो तुम भी मुझे अब भूल जाओ
मैं खुद से ही कहीं अब दूर जाना चाहता हूँ
कहां है वो जो कहते थे सदा ही साथ देंगे
मैं उनको क़ब्र पर अपनी बुलाना चाहता हूँ
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जी रहे हैं ले के रुस्वाई का दुख
भर गया है दिल में तनहाई का दुख
छिन गया हर रंग रिश्तों से यहाँ
अब नहीं है भाई को भाई का दुख
गूँजते थे कल जहाँ क़दमों के सुर
अब वहाँ है महफ़िल-आराई का दुख
रात भर जागी हुई आँखों से अब
रिस रहा है मेरी तन्हाई का दुख
हुस्न का जादू बिखरता जा रहा
है उसे अब बुझती रा'नाई का दुख
शौक़ सारे अब धरे ही रह गए
खा गया हमको तो महँगाई का दुख-
क़हर ढाए मुस्कुराना आपका
मर न जाए ये दिवाना आपका
मुस्कुरा कर जब निगाहें झुक गईं
ख़ुद बना ये दिल निशाना आपका
लाख समझाया दिल-ए-नादान को
हर दफ़ा निकला बहाना आपका
शेर कहने बैठा था ‘कैफ़ी तभी,
याद आया चुप कराना आपका
ज़ुल्फ़ बिखरी तो ग़ज़ल हँसने लगी
याद आया वो जमाना आपका
छेड़ती हैं अब मुझे परछाइयाँ
ख़्वाब सा है अब फ़साना आपका
शाम होते ही जला दिल का दिया
फिर से लौटा वो ज़माना आपका-
लोग मुझे पागल दीवाना कहते हैं
और मुझे जाने क्या क्या कहते है
आप नए दीवाने उसके लगते हो
मुझको उसका यार पुराना कहते है
हिज्र की रातों में भी प्यार निभाया है
फिर क्यों मुझको लोग आवारा कहते है
महफ़िल में तो ख़ामोशी से बैठा हूँ
लोग मुझे फिर क्यों दीवाना कहते हैं
दिल को कहीं भी अब आराम नहीं
हम उसको ही दिल का ठिकाना कहते हैं
देख मोहब्बत में मेरा क्या हाल हुआ
हमको इश्क में अब सय्यारा कहते है
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मुझसे क्यों तुम यूँ रूठे हो
बोलो दिल में क्या रखते हो
बात मोहब्बत की करते हो
और हमीं से दूर खड़े हो
चल के दे-खो साथ हमारे
इतने तन्हा क्यों रहते हो
इन झगड़ों में क्या रक्खा है
हमसे क्यों लड़ते रहते हो
ऐ जी ओजी सुनते हो क्या
क्या खुद में खोए रहते हो
लो तुम जीते और में हारा
देखो कितने तुम अच्छे हो
आके बैठो पास हमारे
फोन में क्या उलझे रहते हो
क्या कैफ़ी बिन जी पाओगे
क्यों उससे तुम दूर गए हो-
कुछ मोड़ ऐसे आए, क़दम भी ठहर गए
साए जो साथ चलते थे, कब के बिखर गए
हम अपनी ख़ामुशी में सिमटते रहे मगर
कुछ राज़ थे जो अश्क़ से होकर उतर गए
थी ये क़सम कि साथ चलेंगे सदा मगर
थोड़े से फासले में ही रिश्ते बिखर गए,
हर बार लौटते हुए इक शोर रह गया
कुछ नाम थे लबों पे, जो ख़ामोश कर गए
बिखरी हुई किताब का, किस्सा थी मेरी उम्र
कुछ मोड़ ऐसे आये की किरदार मर गए
कैफ़ी की आँख ढूँढती फिरती रही उन्हें
वो चंद यार और वो लम्हें किधर गए
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तेरे जो करीब आ रहा हूँ
में खुद से ही दूर हो गया हूँ
की उसने हमेशा बेवफाई
और उसका ही सजदा कर रहा हूँ
क्यूं चुपके से वार तू है करता
तेरे ही तो सामने खड़ा हूँ
मेरी ही क़सम वो खा रही है
क्या मैं उसे लग रहा बुरा हूँ
लहजा ये मिरा है खानदानी
तुझको भी मैं आप कह रहा हूँ
तू गौर से देख ले जाने जाना
मैं दिल से तुझे ही चाहता हूँ
अब तुम भी मुझे भुला दो जानम
मैं खुद को भी अब भुला चुका हूँ
कैसे मैं यक़ीं दिलाऊं तुझको
मैं अपना यक़ीन खो चुका हूँ
अब और नहीं सितम करो जान
मैं कह तो रहा हूँ मर चुका हूं
मक़्ते पे पहुँच के हूँ परेशाँ
सबकुछ तो में यार कह चुका हूं
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तेरे जो करीब आ रहा हूँ
में खुद से ही दूर हो गया हूँ
की उसने हमेशा बेवफाई
और उसका ही सजदा कर रहा हूँ
क्यूं चुपके से वार तू है करता
तेरे ही तो सामने खड़ा हूँ
मेरी ही क़सम वो खा रही है
क्या मैं उसे लग रहा बुरा हूँ
लहजा ये मिरा है खानदानी
तुझको भी मैं आप कह रहा हूँ
तू गौर से देख ले जाने जाना
मैं दिल से तुझे ही चाहता हूँ
अब तुम भी मुझे भुला दो जानम
मैं खुद को भी अब भुला चुका हूँ
कैसे मैं यक़ीं दिलाऊं तुझको
मैं अपना यक़ीन खो चुका हूँ
अब और नहीं सितम करो जान
मैं कह तो रहा हूँ मर चुका हूं
मक़्ते पे पहुँच के हूँ परेशाँ
सबकुछ तो में यार कह चुका हूं
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