ख़त में
ख़ुश्बू तुम्हारी थी
ख़त की बातें मगर हिज़्रराना थीं
अब इतने बरस बाद कभी कभी
मैं ये सोचता हूँ, कौन गुनाहगार है
मैं या तुम, नहीं नहीं तुम सब कुछ
तो हो सकते हो मगर गुनाहगार नहीं
शायद ख़ता मेरी हीं थी मुझे वो
ख़त पढ़ना हीं नहीं चाहिए था, मुझे
उस ख़त को आब-ए-गंगा में बहा देना था।
-