Himanshu 'अनुरक्त'Sharma   (हिमांशु 'अनुरक्त' शर्मा)
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Joined 9 May 2019


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Joined 9 May 2019

साथ तुम्हारा चाहता हूँ। (भाग-2)

तुम ऊँट की संज्ञा दे दो, या बुला लो मुझको लोमड़ी।
बंदर मेरा उपनाम रख दो, या तोड़ तो मेरी खोपड़ी।
गधे जैसा मस्तिष्क है मेरा, मैं बुरा ना इसका मानूँगा।
मैं चिड़ियाघर का प्राणी हूँ, तुमसे मिलकर ही मानूँगा।

तुम पालक-पनीर बनाकर रखना, शीघ्र ही खाने आऊँगा।
इतना अच्छा भोजन मैं, और कहाँ ही पाऊँगा।
आलू के पराठों से मेरा, पेट भरा है मन नहीं।
गाजर का हलवा सारा मैं, अपने साथ ले आऊँगा।

तुम्हें प्रेम पसंद नहीं है, इसलिए तुम झिझकती हो।
मैं इस बार और अधिक, संयम लेकर आऊँगा।
घूम बहुत लिए है हम, इस बार साथ में बैठेंगे।
और कोई बहाना नहीं है, बस तुमसे मिलने आऊँगा।
मैं अपने भाव से तुमको, असहज नहीं करना चाहता।
इसलिए जैसा तुम चाहो, मैं वैसा बनकर आऊँगा।
तुम चाहे मित्र मानो मुझको, या कह देना छोटा भाई।
मैं अपने मन ही मन में, तुमसे प्रेम करना चाहूँगा।

मैं तुम्हें देखकर जागना, तुम्हें देख के सोना चाहता हूँ।
तुम बहुत कुछ सिखाती हो, मैं सदैव सीखना चाहता हूँ।
तुम मेरी पुस्तक की नायिका, मैं तुम्हें नहीं खोना चाहता।
रिश्ता चाहे जो भी हो, मैं साथ तुम्हारा चाहता हूँ।

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साथ तुम्हारा चाहता हूँ। (भाग-1)

रिश्ता चाहे जो भी हो, तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ।
अपने सुख, सारे दुख तुम्हारे, साथ बाँटना चाहता हूँ।
तुम दो पल हँस कर बात कर लो, इतना ही तो चाहा है।
मुझे तो यह भी याद नहीं है, मुझे कब, किसने चाहा है?

तुम्हारे संदेश पढ़कर ही, अब आँखें मेरी खुलती है।
तुम्हारे मुख-दर्शन हेतु, प्रतिदिन ये मचलती है।
मैंने कब यह चाहा है, तुम सम्मुख आ जाओं मेरे?
बस मुझे लगा लेने दो, तुम्हारे घर के दो-चार फेरे।

आकर काम बढ़ा देता हूँ, यह बात मैं जानता हूँ।
तंग बहुत करता हूँ क्योंकि, तुमको अपना मानता हूँ।
बार-बार यूँ आना मेरा, पसंद नहीं आता है तुमको?
मेरी भी मजबूरी है, मैं खुद को रोक ना पाता हूँ।

तुम्हारे खाने की खुशबू, मेरे घर तक आती है।
मुहँ में पानी आ जाता है, और जिह्वा लपलपाती है।
चाय तो तुम्हारे जैसी, कोई नहीं मुझे पिला पाया है।
इसलिए मेरी देह स्वयं ही, चलकर तुम तक आती है।

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प्रेम का कारण (भाग-5)

अनुरक्त’ अनुरक्त है तुमपर, कई कारण है फिर भी अकारण।
वह तुम्हें करता है, अपने हृदय में रक्त सा धारण।
तुम उसकी धमनियों में, प्रतिपल बहती रहती हो।
तुम इतनी दूर होकर भी, उसके पास रहती हो।

वह बड़ी दूर से तुम्हारा, हृदय जोड़ने आया है।
ऐसा उसने बाबा विश्वनाथ का आदेश पाया है।
वह तुम्हारा परिचय तुमसे, पुनः कराने आया है।
साथ में दो सूरजमुखी के, पुष्पों को भी लाया है।

अगर अब भी संदेह हो स्वयं पर, तो आँखें अनुरक्त’ की उधार ले लेना।
एकांत में जाकर तब तुम, अपने गुणों को देख लेना।
तुम यह करके देखोगी तो तुम्हें भी, तुमसे प्रेम हो जायेगा।
उसके बाद कभी तुमको, यह संदेह नहीं सतायेगा।

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प्रेम का कारण (भाग-4)

माना तुम छिपकली से डर जाती हो,
लेकिन आत्मरक्षा हेतु महाकाली बन जाती हो।
माना तुम्हें अकेले छोड़ दिया जाता है,
लेकिन यह अकेलापन अब तुम्हें रास आता है।
माना तुम किसी से कुछ मांग नहीं पाती हो,
लेकिन तुम बहुत कुछ मांगना चाहती हो।
माना तुम किसी से प्रेम नहीं कर पाती हो,
लेकिन तुम प्रेम करना चाहती हो।


तुम प्रेम करने के लिए बनी हो,
फिर शंका तुम क्यों करती हो?
तुम भी जानती हो प्रेम करना,
लेकिन तुम क्यों डरती हो?
जिसने भी तुम्हारा दिल दुखाया,
वह भी एक दिन पछतायेगा।
उस दिन उसको प्रेम तुम्हारा,
बहुत याद आयेगा।
वह तुम्हें फिर से संपर्क करना चाहेगा,
लेकिन कहाँ से पुनः तुम्हें उसी रूप में पायेगा।

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प्रेम का कारण (भाग-3)

तुम्हारे रूप से प्रेम किया है मैंने, तुम्हारे रंग से प्रेम किया मैंने।
तुम्हारे विरह से प्रेम किया है मैं, तुम्हारे संग से प्रेम किया है मैंने।
तुम्हारी बातों से प्रेम किया है मैंने, तुम्हारी यादों से प्रेम किया है मैंने।
तुम्हारे सुझावों से प्रेम किया है मैंने, तुम्हारे घावों से प्रेम किया है मैंने।
तुम्हारे क्रोध से प्रेम किया है मैंने, तुम्हारे शोध से प्रेम किया है मैंने।
तुम्हारे भोजन से प्रेम किया है मैंने, तुम्हारे मन से प्रेम किया है मैंने।

तुम्हारे अंगों की सुंदरता का वर्णन करते मैं थकता नहीं हूँ।
लेकिन केवल तुम्हारे अंगों से प्रेम करता नहीं हूँ।
मैंने प्रेम किया है तुम्हारी अंतरात्मा से।
तुम्हारे भीतर बैठे हुए परमात्मा से।
तुम्हारी आँखों के माध्यम से, मैं उन्हें देखने का प्रयास करता हूँ।
हाँ! यह सच है- “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।”

मैंने प्रेम किया है तुमसे, कुछ पल साथ बिताने को।
और प्रेम किया है तुमसे, अपने दिल की बात बताने को।
मैंने प्रेम किया है तुमसे , कोई रहस्य ना छिपाने को।
और प्रेम किया है तुमसे, तुम्हें अपना प्रेम जताने को।
मैंने प्रेम किया है तुमसे, ताकि स्वयं को खो सकूँ।
भूल जाऊँ दुःख सारे अपने, और तुम्हारा हो सकूँ।

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प्रेम का कारण (भाग-2)

तुम्हारी हँसी से प्रेम किया है मैंने, तुम हँसते हुए अच्छी लगती हो।
जब यें-यें-यें-यें करके चिड़ाती हो मुझको, तब तुम छोटी बच्ची लगती हो।
तुम्हारे कानों से प्रेम किया है मैंने, धैर्य धारण कर ये मुझे सुनते है।
कपासी मेघों सी दंतावली तुम्हारी, ईश्वर स्वयं इसे बुनते है।

मैंने प्रेम किया है तुम्हारी चंचलता से, और तुम्हारे हृदय की निर्मलता से।।
मुझे प्रेम हुआ है तुम्हारी अच्छाई से, और तुम्हारे मन की गहराई से।
मुझे प्रेम हुआ तुम्हारी अल्हड़ता से, और तुम्हारी परिपक्वता से।
मुझे प्रेम हुआ तुम्हारे स्वभाव से, तुम्हारे भगवद् भक्ति के भाव से।

तुम्हारी आतुरता से प्रेम हुआ है मुझे, तुम्हारी चतुरता से प्रेम हुआ है मुझे।
तुम्हारे वात्सल्य से प्रेम हुआ है मुझे, तुम्हारे बालपन से प्रेम हुआ है मुझे।
तुम्हारे सपनों से प्रेम हुआ है मुझे, जीवन-मूल्यों से प्रेम हुआ है मुझे।
तुम्हारी कातरता से प्रेम हुआ है मुझे, तुम्हारी निडरता से प्रेम हुआ है मुझे।
तुम्हारी सामाजिकता से प्रेम हुआ है मुझे, तुम्हारी व्यावहारिकता से प्रेम हुआ है मुझे।
तुम्हारे मौन से प्रेम हुआ है मुझे, तुम्हारे एकांत से प्रेम हुआ है मुझे।
तुम्हारी दृढ़ता से प्रेम हुआ है मुझे, तुम्हारी कृतज्ञता से प्रेम हुआ है मुझे।
तुम्हारी भावनाओं से प्रेम हुआ है मुझे, तुम्हारी कामनाओं से प्रेम हुआ है मुझे।

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प्रेम का कारण (भाग-1)

कोई प्रेम करेगा तुमसे क्यों?”
यह लगता तुमको इतने कारण बताने के बाद भी।
संदेह है तुम्हें प्रेम पर मेरे, मेरा हृदय खोलकर दिखाने के बाद भी।
चलो! मैं आज पुनः बता दूँ, तुम्हें प्रेम करने के कारण।
कदाचित् कर पाऊँ इस बार, तुम्हारी शंका का निवारण।

मैं प्रेम करता हूँ तुम्हारे नेत्रों से, ताकि देख सकूँ उनकी निर्मलता।
तुम्हारे कपोलों से प्रेम किया है मैंने, छूने को उनकी कोमलता।
तुम्हारे अधरों से प्रेम किया है मैंने, उनकी लाली निहारने को।
तुम्हारे बालों से प्रेम किया है मैंने, उन्हें अपने हाथों से सँवारने को।

तुम्हारे मस्तक से प्रेम किया है मैंने, ताकि सम्मान से उसको चूम सकूँ।
तुम्हारी बाँहों से प्रेम किया है मैंने, ताकि उनमें लिपटकर खुशी से झूम सकूँ।
तुम्हारी कटि से प्रेम किया है मैंने, ताकि उसे पकड़कर तुम्हें गोद उठा सकूँ।
तुम्हारे पैरों से प्रेम किया है मैंने, ताकि तुम थको कभी तो उन्हें दबा सकूँ।
तुम्हारी वाणी से प्रेम किया है मैंने, मन शांत होता है उसको सुनकर।
तुम आई कुछ यूँ मेरे जीवन में, घोर निशा उपरांत जनु आया दिनकर।

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चित्र(भाग-2)
कभी-कभी तुम मुख छिपाकर, चित्रों से बचना चाहती हो।
मैं तुम्हारा अपना प्रिय, तुम मुझसे क्यों लजाती हो?
किसी चित्र में क्रोध में भरकर, तुम देखती हो मुझको।
किसी चित्र में देख स्वयं को, हँसी आ जाती है तुमको।

तुम अपने चित्रों को गंदा, कैसे कह देती हो प्रिय?
मेरी नेत्र है पूर्ण-स्वस्थ, इनपर संदेह ना करों प्रिय।
तुम श्वेत वर्ण में श्वेत-घन सी, काले में काला काजल।
लाल वर्ण पहना ना करों, कर दोगी सबको घायल।

पीत वर्ण में वसंत-ऋतु सी, हरित वर्ण में हारिल जैसी।
जैसा तुम्हारा परिवेश होता, उसमें तुम ढल जाती वैसी।
बस एक कमी रहती है इनमें, काजल के काले टीके की।
जिससे लग ना पाएँ तुमको, बुरी नजर कहीं किसी की।

प्रत्येक चित्र में तुम मुझे, भिन्न दिखाई देती हो।
लाखों की इस भीड़ में केवल, मुझे तुम दिखाई देती हो।
तुम्हारे अलग-अलग चित्रों की, अलग-अलग कहानी है।
मुझे कहानी कह लेने दो, इसमें क्या परेशानी है?

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चित्र (भाग-1)
मैं बार- बार चित्र माँगूँ तुम्हारे, तुम परेशान हो जाती हो।
कुछ मुझे तुम देती भेज, कई अन्य छिपाना चाहती हो।
मैं थोड़ा लोभी हूँ प्रिय, मन को कैसे समझाऊँ?
तुम्हारे भिन्न-भिन्न रूपों का मैं, बार-बार दर्शन चाहूँ।

तुम कहती हो- “एक देख लो, शेष सभी समान है।
देखो समान स्थान यहाँ, समान ही परिधान है।”
हीरे की परख हेतु, स्वर्णकार ही उपयुक्त है।
ये अनुरक्त’ आँखें मेरी, लाग-लपेट से मुक्त है।

तुम ही किसी चित्र में मुसकुराती, किसी में रहती मौन खड़ी।
किसी में लगती छोटी बच्ची, किसी में सुंदर लगती बड़ी।
किसी चित्र में हिलकोरे तुम्हारे, स्पष्ट दिखाई देते है।
किसी में चमकते नेत्र तुम्हारे, मुझसे बहुत कुछ कहते है।

किसी में प्यारी गुड़िया लगती हो, किसी में उड़ती तितली की भाँति।
किसी में अप्सरा सी लगती हो, किसी में तुम देवी बन जाती।
तुम किसी चित्र में गोपी लगती, किसी चित्र में राधा-रानी।
किसी में रात्रि रोशन कर देती, किसी में उड़ाती मुझपर पानी।

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चित्र (भाग-2)

कभी-कभी तुम मुख छिपाकर, चित्रों से बचना चाहती हो।
मैं तुम्हारा अपना प्रिय, तुम मुझसे क्यों लजाती हो?
किसी चित्र में क्रोध में भरकर, तुम देखती हो मुझको।
किसी चित्र में देख स्वयं को, हँसी आ जाती है तुमको।

तुम अपने चित्रों को गंदा, कैसे कह देती हो प्रिय?
मेरी नेत्र है पूर्ण-स्वस्थ, इनपर संदेह ना करों प्रिय।
तुम श्वेत वर्ण में श्वेत-घन सी, काले में काला काजल।
लाल वर्ण पहना ना करों, कर दोगी सबको घायल।

पीत वर्ण में वसंत-ऋतु सी, हरित वर्ण में हारिल जैसी।
जैसा तुम्हारा परिवेश होता, उसमें तुम ढल जाती वैसी।
बस एक कमी रहती है इनमें, काजल के काले टीके की।
जिससे लग ना पाएँ तुमको, बुरी नजर कहीं किसी की।

प्रत्येक चित्र में तुम मुझे, भिन्न दिखाई देती हो।
लाखों की इस भीड़ में केवल, मुझे तुम दिखाई देती हो।
तुम्हारे अलग-अलग चित्रों की, अलग-अलग कहानी है।
मुझे कहानी कह लेने दो, इसमें क्या परेशानी है?

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