Govind Mathur   (Govind Mathur)
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Writer
Joined 17 February 2017


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Joined 17 February 2017
22 APR 2021 AT 16:57

कविता
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लुप्त हुई नदी
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मेरे अन्दर एक नदी थी
जिसके बहते रहने का
अहसास होता रहता था

कभी कभी बहुत तेज
होता था बहाव, अक्सर
शांत ही रहती थी नदी

कई दिनों से नदी का बहना
मुझे महसूस नहीं हो रहा
कल- कल की आवाज
सुनाई पड़ती है न ही
शीतलता महसूस होती है

मुझे ऐसा लगता है
जैसे रेत उड़ रही हो
मेरे अंदर
सांय सांय की आवाज आती है
तेज आंधी चल रही हो जैसे

भटक रहा है कोई
प्यासा हिरण मेरे अंदर
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16 APR 2021 AT 13:30

कविता
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अपने विषय में
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अपने विषय में
कम जानते हैं हम

कभी कभी तो लगता है
बिल्कुल नहीं जानते जबकि
लोग कितना जानते हैं हमारे विषय में

हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं
जब किसी तीसरे व्यक्ति से
सुनते हैं, दूसरा व्यक्ति हमारे
विषय में क्या कह रहा था

दूसरा व्यक्ति जानता है हमें
हम दूसरे व्यक्ति के विषय में
जानते हैं, न ही तीसरे व्यक्ति के

तीसरा व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर
विश्वास करता है, हम पर नहीं
क्योकि हम नहीं जानते
अपने विषय में कुछ भी
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( " पहल " - 124 ' जनवरी - 2021 में प्रकाशित )

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21 MAR 2021 AT 13:43

कविता
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मेरी हथेलियां
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मेरी हथेलियां नर्म एवं गर्म
रहा करती थी युवावस्था में
अंगुलियां पतली और लंबी थीं

अंगुलियों की लम्बाई तो नहीं घटीं
किन्तु हथेलियां खुरदरी हो गईं

मझसे हाथ मिलाने वाले कहते
गर्म हैं आपकी हथेलियां
कहीं हरारत तो नहीं
कहीं तबियत नासाज तो नहीं
कुछ मेरी हथेलियों और
लम्बी अंगुलियों के कारण कहते
लगता है आप कोई कलाकार हैं
मैं नम्रता से कहता, नहीं
मैं कविताएं लिखता हूँ

हथेलियों में खींची आड़ी-तिरछी
लकीरें देखा करता था मैं
कुछ हस्तरेखा विशेषज्ञों ने भी
की थीं भविष्यवाणियां
आज भी खुरदरी हथेलियां
देखा करता हूँ
न भविष्यवाणियां सच हुईं
न ही कवि होना
( " पहल " -124 जनवरी'2021 में प्रकाशित)

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15 JAN 2021 AT 0:08

कविता
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कहाँ है वो बच्चा जो मैं था
मेरे भीतर है अब भी या चला गया ?
क्या उसे मालूम है कि मैंने उसे कभी नहीं चाहा
और न ही कभी चाहा उसने मुझको ?
क्यों बिताते हैं हम इतना वक़्त बड़े होने पर
जब हो जाना है हमको अलहदा ?
जब मर गया मेरा बचपन
तब ही क्यों नहीं मर गए हम दोनों ?
और जब मेरी रूह मर जाती है
तो क्यों मेरा पीछा करता है मेरा पंजर ?
( सवालों की किताब : पाब्लो नेरुदा )

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27 DEC 2020 AT 19:05

मिर्ज़ा ग़ालिब के जन्मदिन पर
उनके कुछ अशआर।
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हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर
ख्वाहिश पर दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन
फिर भी कम निकले ।

निकलना खुल्द से आदम का
सुनते आए थे लेकिन ।
बहुत बे आबरू हो कर तेरे
कूचे से हम निकले ।
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हक़ीक़त लेकिन ।
दिल के खुश रखने को ' ग़ालिब '
ये ख्याल अच्छा है ।

5 रगों में दौड़ने-फिरने के
हम नहीं कायल।
जब आँख ही से न टपका ।
तो फिर लहू क्या है ।
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4 JUL 2020 AT 13:19

कविता
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भूलना
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अभी जो चंद रोज
पहले ही सुना था
पढ़ा था देखा था
याद नहीं मुझे

रोज पढ़ता हूँ सुनता हूँ
देखता हूँ, भूल जाता हूँ

तीस - चालीस बरस पहले
जो पढ़ा था देखा था
सुना था मैंने
वो धुंधला सा ही सही
स्मृति में बना रहता है
उसे नहीं भूल पाता हूँ
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7 JAN 2020 AT 19:04

बोल
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बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख के आहनगर की दुकां में
तुंद है शोले, सुर्ख है आहन
खुलने लगे कुफ़लों के दहाने
फैला हर एक जंजीर का दामन
बोल, ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्मों - ज़बां की मौत से पहले
बोल, कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले
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---- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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4 JAN 2020 AT 19:30

कुछ इश्क किया कुछ काम किया
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वो लोग बहुत खुश किस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया

काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
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----- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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12 AUG 2019 AT 18:24

अभिव्यक्ति
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बड़बड़ाते रहना
दुखों की अभिव्यक्ति है
चुप रह जाना
दुखों को आत्मसात करना
सुखी व्यक्ति उपदेश देता है
दुखी व्यक्ति सुनता है
बुद्धिमान व्यक्ति सोचता है
विद्ववान व्यक्ति व्याख्या करता है
कम दुखी ज्यादा बोलता है
ज्यादा दुखी कम
निरन्तर बोलते रहना
एक आदत है
खामोश रहना एक कला
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( प्रकाशित : " सम्प्रेषण " जनवरी-जून' 2019)

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28 MAY 2019 AT 17:57

दोस्तानापन
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जनाब क दोस्ती को बहुत ऊंची अहमियत देते थे । उन्होंने कहा ---- " किसी को दबा कर रखना, चाहे दोस्ताना तरीके से ही सही, किसी को उसकी सलाहियत के मुताबिक न आंकना, किसी का तब ही दोस्त होना जब वह आपके साथ दोस्ताना सलूक करता हो, किसी के साथ ठंडा व्यवहार करना जब वह दिलकश हो, उसे दिलकश समझना, जब वह ठंडा हो, ये सब
असली दोस्ताना नहीं है ।
( जनाब कोएनर की कहानियां : बर्तोल्त ब्रेख्त)

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