देखो, सदा ज़ख़्म-ए-इश्क पर, ग़म पहरा देगा,
न वो मरहम लगने देगा मगर, ग़म पहरा देगा।
यूँ सुन लेना या टाल देना, अपने दिल की बात,
घबराना नहीं, जो मर्ज़ी उधर, ग़म पहरा देगा।
जब होगी फकत तन्हाई, महज़ बेतहाशा डर,
तब सुलगती जान बचाकर, ग़म पहरा देगा।
ये लिबाज़ मुस्कुराहट का उतरेगा जब रातों में,
तब रोते वक्त खुशियों के घर, ग़म पहरा देगा।
होती है राह तबील, इन बर्बादियों की जाना,
चुप-चाप करते रहना सफर, ग़म पहरा देगा।
बच जाना ज़िंदगी का समझो दुख है आख़िरी,
वफ़ात-ए-आरज़ू पर अक्सर ग़म पहरा देगा।
कहना-सुनना, करना बातें, रस्म हैं दुनिया की,
तो भूलना मत ख़ामोश-पहर, ग़म पहरा देगा।
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