खुद को निकम्मा समझने लगा हूँ
तुम शक करती रहा करो-
एक पैर ज़मीं एक आसमां पर है।
जीवन की भागा-दौड़ी में
स्तब्ध हूँ इक अहसास लिए
समय के बहते झरनों में
मरूस्थल की इक प्यास लिए
जग की कड़वी बातों में भी
बीती यादों की मिठास लिए
घनघोर रात्रि के अंधेरों में
लाखों दीपों का प्रकाश लिए-
भीगी पलकें, स्तब्ध पड़ा एक शरीर और सिरहाने में रखा एक ख़त। जिसकी स्याही फैल चुकी थी, कुछ शब्द मिट गये थे, कुछ स्पष्ट होके भी अर्थहीन थे। आंसुओं की तमाम कोशिशों के बावजूद निरवता का मातम, उम्रभर की छाप छोड़ गया था। एक ख़त जिसे लिखने वाले के हाथ कांप रहे थे और पढ़ने वाले की रूह। जिसका अंत अनंत था और जवाब में बस एक गहरी खामोशी। उस ख़त के बाद दोनों ना एक दूसरे से कभी मिल पाए, ना खुद से। वो ख़त दोनों के ढलते दिन का आखिरी प्रहर था। वो ख़त दोनों की जिंदगी का आखिरी ख़त था।
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कितना मुश्किल है लिखना कुछ आसान सा। कुछ ऐसा जिसमे ना भारी-भरकम शब्द हो, ना गहरे फ़लसफें हो, ना तुकबंदी की कोशिशें हो, ना उतार चढाव की मसक्कतें हो। जिसमे ना सियासी मुद्दे हो, ना उलझे-बिखरे रिश्ते हो, ना अधूरे इश्क के किस्से हो, ना जिंदगी के अनकहे हिस्से हो।
कुछ ऐसा जिसमे ना जरूरते हो, ना ख्वाहिशें हो, ना किसी की पसंद-नापसंद का जिक्र हो, ना तारीफ़ें बटोरने का फिक्र हो। जिसमे मंजिल की तलब नहीं बस जूनून हो। जिसमे सुकून की तलाश नहीं पर सुकून हो। कुछ ऐसा ही बेपरवाह, बेमतलब, बेजान सा । शायद इक रोज मैं लिखूँगा कुछ आसान सा।
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चाँद, आसमां, मौसम, जिंदगी और ख्वाब
इश्क़ हर उस खूबसूरत चीज के साथ लिखा गया,
जिसमें बदलाव था।-
जिसने भी लिखा पहली बारिश पे लिखा,
आखिरी बारिश पूरे सावन के किस्से लेकर आयी और गुजर गयी,
पर अंत की खूबसूरती को शब्दों में तराशना कहाँ आसान था !-
हर शाम ख़्वाहिशों के पीछे भागा जाए ये मुनासिब नहीं,
कुछ शामें हैं जो मैंने सिर्फ खामोशी के लिए संभाल कर रखी हैं।-