मैं इंतज़ार में तुम्हारे कितनी तड़प रही
तुम्हे पाने की राह में, दुजे सुखों के चक्कर लगा रही
तुम सा काम, तुम सी होने भी कभी लगती हूं,
फिर भी अनेकों अलग कामनाओं में मैं भटक रही,
लिप्त नही हूं वैसे, आदतें मेरी मुझे भी खटक रही,
है मालूम, ऐसे न पा सकूंगी मैं तुम को,
देखो! फिर भी न खुद को मैं बदल रही
कहीं न जा सके, कामनाएं छोड़ी न जा सके
तुम्हे मिलने की ख्वाहिश भी पूरी न हो सके
क्या करू, कैसे करू, तुम्हारे समीप कैसे और ये मन आ सके?
भीतर ही पूछती रहती मैं
खुद को कुरेद करती मैं
थोड़ी तुम्हारी, ज्यादा दूजो की रहती मैं
कभी खुद से ही खुद डरती मैं
सुख सुविधा से खुद को बहुत भरती मैं
वहीं बाहरी मलिन भोग चरती मैं
तेरे पास, तुझे पाने के अलावा कोई विल्कप नही
तुम्हारा सुमिरन कब से जपति मैं
मीरा, राधा, नरसिंह, पार्थ से जलती मैं
उनके आचरण पर, ज़रा चलती मैं
न चल सकते, आसूंओ सा झरती मैं
और बाकी क्या अब कर सकती मैं।
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