आज भी जब मैं मेरे गांव जाता हूं
तो नजर आता है सब कुछ वैसा , छोड़ा था मेरी माँ ने जैसा
वही झूलता सा पंखा वही दब दबा सा गदा
वही दुल्हन सा घूंघट ओढ़े कांच और उसपे मेरी माँ की बिंदिया
दीवार से लगी बेजान सी खटिया और उसी के पास पड़ा मेरी पहली साइकिल का टूटा पहिया
नजर आते हैं वो चमकदार बर्तन जिसपे चेहरा आज भी दिखता है
मेरे गांव का वो सालों पुराना मटका आज भी ठंडा पानी देता हैं
खुशबू आज भी कपड़ो में अपनो की आती हैं
बिताए पुराने पलो की याद ताजा कर जाती हैं
चूल्हा आज भी बेखौफ अपनी आग सेकता हैं
स्वाद भी रोटी का पहले जैसा है
लोटा बाल्टी ठुमक कर आज भी गिरते हैं
पहले जैसे ही बिजली पानी बेवक्त आते जाते हैं
सब नजर आता है वैसा छोड़ा था मेरी माँ ने जैसा
बस अब नजर नहीं आती माँ मुझे क्यों पहले जैसे
दो गली दूर भी जो सुन लेती थी आवाज मेरी
क्यूं आज वो मेरे दिल में रह कर भी मेरी आवाज़ नही सुनती
जो खिलाती थी हमेशा चूल्हे पे पकी गरम रोटी
क्यूं आज वो मेरी थाली में रखी ठंडी रोटी को नहीं टटोलती
समान तो आज भी उसका वही रखा हैं जहां उसने छोड़ा था
पर अब वो नहीं यहां
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