स्त्रियां बना देती हैं पुरुषों को
थोड़ा नरम,
अक्सर स्त्रियां ही सिखाती हैं पुरुषों को
प्रेम की भाषाएं और परिभाषाएं,
मिलने पर ही एक स्त्री से
होता है आभास एक पुरुष को
अपने अंतर के मोम हो जाने का,
अपने भीतर भरे जमाव के बह जाने का,
एक स्त्री के समक्ष ही मिल पाता है
पुरुष अपने भीतर के बच्चे से
नादानियां, रूठना - मनाना,
बच्चे की आवाज़ में तुतलाना,
एक ओर बनता जाता बच्चा,
दूसरी ओर गहराता है उसका पुरुषत्व
जिसके किनारे गहराते जाते हैं स्वत: ही
जब निहारता रह जाता है
वो स्त्री को एक दूरी से,
जब भरने के बजाय उसके केशों
को अपनी मुट्ठी में, खोंस देता है उन्हें
हल्के से उसके कान के पीछे
जब कठोर आवाज़ में अपना पुरुषत्व
प्रमाणित करने के बजाय, गुनगुनाता है गीत
धीमी आवाज में, जब आभास हो जाता है उसे
स्त्री नहीं है द्वार कोई उसकी वासनाओं का
परंतु है एक राह, जिस पर मैत्री और सहचर्य से
खुलते हैं द्वार कई और आकाशगंगाओं के
तब बन जाता है एक जन्मा पुरुष,
सभी मायनों में पुरुष।
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