चुनाव नहीं खेल है
दनुज मानव सोच से जड़ जीव सुर नर त्रस्त हैं।
कलि प्रभाव ग्रसित मोहित सभी निज में व्यस्त हैं।।
हर जगह हर ओर कुंठा अज्ञान विधर्म विकास है।
तिलस्म फैला हर जगह, हर जगह मकड़जाल है।
खोजता हूँ आदमी, लालटेन बिना तेल है।
दीखता है पथ नहीं, चुनाव नहीं खेल है।।
नियम क्यू का है बना, लेकिन रेलम रेल है।
कहने को है विकास, पर विनाश खेल है।।
उतरते रंगत महल के, झोपड़ी उजाड़ है।
दिन में तारे दीखते, हथौड़े की पड़ी मार है।।
गेहूँ की फसल पक गई, हसुआ में नहीं धार हैं।
कीचड़ में कमल दिख रहा, जनता पहरेदार है ?
तीर दिल में चुभ रहा, दवा सब बेकार हैं।
शैलज हाथ मल रहा, भविष्य अन्धकार है।।
डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज,
(कवि जी),
पचम्बा, बेगूसराय, बिहार।
- डॉ० प्रो० ए० के० शैलज