अनुकल्प तिवारी   ('विक्षिप्त')
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Joined 23 September 2019


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Joined 23 September 2019

स्वयं उसूलों के लिए जीना सीखो मित्र
कर्म करो की सृष्टि में ,महके यश का इत्र।

जीवन भी हो श्रेष्ठतम , अच्छे हो व्यवहार
सभी हेतु सम्मान हो, सात्विक सुभग विचार।

धैर्य धरो,धारण करो मन में दृढ़ संकल्प
कठिन परिश्रम सा नहीं , दूजा अन्य विकल्प।

कभी सरलता से नहीं करो हार स्वीकार
लड़ो निराशा से तभी होगी जय जयकार।

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खुले आसमानों के नीचे कहीं पर
जहाँ सांझ नीलम सी होगी वही पर ।

मिलेंगे कभी हम हकीकत में उन से
पता तो नहीं पर ,यहीं पर कहीं पर ।

मुहब्बत है उनसे बहुत ही जियादा
उन्हें यह जता पायेंगे हम नहीं पर ।

हमें उनकी बातों का लहजा पसंद है
निगाहें फिदा हो गयीं सादगी' पर ।

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मेरे जीवन के सुख मेरे प्यारे पिया ।
आपने इश्क़ का क्यूँ अनादर किया ।

क्या कमी रह गयी चाहतों में मेरे
आपने इन गुलाबों को ठुकरा दिया ।

मिट गये स्वप्न खुशियों के मेरे सभी
मेरे आंखों ने 'आंसू' ही अपना लिया ।

क्या लिखा था खुदा ने मेरे भाग्य में
दर्द इतना मिला सह न पाये हिया ।

जाने क्या बात है चैन आता नहीं
आप'से दूर होकर न जाये जिया ।

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तुम्हारी याद में प्रियतम उदास हूँ थोड़ा।
खुशी के भीड़ में गमों के पास हूँ थोड़ा।

छुअन बची है तेरी,मेरी इन अंगुलियों में
तू अब भी आता जाता है हृदय की गलियों में
कभी मिलूँ तो गले से मुझे लगा लेना
दिखेगा तो नहीं,लेकिन निराश हूँ थोड़ा।

बिखरते चाहतों को दूर कर नहीं पाया
कमी तुम्हारी कोई भी तो भर नहीं पाया
मिले न चैन कहीं एक मायूसी पसरी
बिछड़ के ठीक हूँ पर बदहवास हूँ थोड़ा।

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' विक्षिप्त '

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'क्या सरल था 'बुद्ध' होना'

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' रोने का मन कर देता है '

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' मम्मी! आप नहीं समझोगी '

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बिन तुम्हारे हाय ! मैं कैसे रहूँगा ?

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