तुम आदत बन चुके हो
इबादत बन चुके हो
पास होकर सहारा
दूर से हिम्मत बन चुके हो
नज़रें हैं ढूँढ़ती
हर पल है खोजती
आँख बंद कर लूँ तो
तेरे होने का एहसास
मन को हो जाता है|
तुम आदत बन चुके हो |
मेरी इबादत बन चुके हो |-
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एक कारण से जग में आए ,
एक कारण से जीवन पाए।
एक कारण दिन और रात ,
एक कारण रात, दिन बनावे।
एक कारण स्वर्ग, करम से पावे ,
एक कारण नरक दिलावे।
एक कारण दिशा भरम हो जावे ,
एक कारण चिन्हित दिशा मिल जावे ।
एक कारण बिछड़न गम बन जावे,
एक कारण बिछड़न त्याग-तपस्या में बदल जावे।
एक कारण मानव देवता कहलावे,
एक कारण देवता दानव बन जावे।
एक कारण जड़ और चेतन
एक कारण न जड़ और न चेतन।
एक कारण सृष्टि का कारण
एक कारण मैं का निवारण।
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शब्दों के साथ एक साक्षात्कार,
तपती धरती पे जैसे बूँदों की बौछार,
पतझड़ के बाद बसंत की बहार,
नीले आसमां पे चाँद-तारों की बारात,
सूखे रेगिस्तान में ठन्डे पानी का साथ,
घने मेघों को धरा चूमने का इंतज़ार|
शब्दों के साथ एक साक्षात्कार,
पुराने साथी से मिलना ज़माने के बाद,
पुरानी गलियों में घूमना गीली यादों के साथ,
दरवाज़ों के भीतर से चहकने की आवाज़ ,
धुँधली छाया से रूबरू होने की आस |
शब्दों के साथ एक साक्षात्कार |
कलकल धारा के मध्य पर्वत का प्यार,
ऊष्मता पर हुए शीतलता की बरसात,
महुए पर कोमलता से साथी का हाथ,
झरने के किनारे दो हंसों का संसार |
बेचैन भँवरों को फूलों के खिलने का इंतज़ार,
सूखे पत्ते को जी लेने का आभास,
अठखेलियाँ करतीं मछलियाँ,
सुकून का एहसास |
शब्दों के साथ एक साक्षात्कार |-
कि पेड़ की एक टहनी,
जिस पर मेरा घोंसला है,
कहाँ चला गया ?
उसमें मेरे बच्चे हैं ।
बच्चे भूखे-प्यासे हैं।
मैं दाना लेकर आई ,
क्या मैं रास्ता भटक कर आई ?
मुझे छला तो नहीं...
हे मानव, बता मेरे बच्चे कहाँ हैं ?
हे मानव बता वो पेड़ कहाँ है?
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किसी से भी सुलझते नहीं,
सुलझे भी कैसे ?
समझ में आए भी कैसे ?
जब उलझन ही खुद के बनाए होते हैं।-
सपने अपने-से हो गए ,
हकीकत या सपना पता नहीं ,
सपनों के हम हो गए या
सपने हमारे हो गए!
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किसी वज़ह का होना।
खुश रहने के लिए,
तुम्हारा होना किसी वज़ह से कम भी नहीं।
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ज़िन्दगी को समझने की ज़रुरत नहीं,
जीने का तरीका आता हो तो
बाकि ये खुद समझा देती है ।-
क्या हुआ जो मुँह की खाई है,
ख़ुदा की नेहमत से
मिट्टी को गले लगाई है।
आसमां छूने की चाहत ,
ऐंठ मत कि ज़र्रा भी न मिले।
तहरीर की समझ ,
ख़्वाइशें अनगिनत ,
ख़ुद पर भी यक़ीन कर।-
कामयाबी का जश्न तो हर कोई मना लेता है,
नाकामयाबी का जश्न मना कर तो देख ,
शिखर तक पहुँचने का जोश भर देता है ।
एक वज़ह से जश्न बनती है तो
दूजी वज़ह को ढूँढ़ने के लिए होती है।
नाकामयाबी ही, क़ामयाबी की वज़ह होती है।-