कुछ लिखने के पीछे
मेरी मंशा
नहीं वाहवाही लूटना,
न ही कोई चाहे
इससे दुनिया को कुछ दिखाना,
मन में रह गया इतना कुछ
अनकहा जरूरी,
उस अनकहे का बोझ
जरूरी है उतारना ,
कभी–कभी आसान नहीं
दिल की बात,
दिल से जुड़े शख्स से
सीधे और सरल कह जाना,
तभी तो चाहे कोई
घूमा–फिराकर
किसी को कुछ समझाना,
कुछ महसूस कराना,
कर्क रोग सी भयावह पीड़ा
होती किसी से कुछ जरूरी
न कह पाने की,
खूब कोशिश कर ले
कोई, गहरी बात मन में दबाने की,
पर एक न एक दिन
बनता यह रोग जानलेवा,
और लिखना
चिकित्सा नजर आती
इस रोग को मिटाने की।-
🌱 पूर्णता की राहों में, मिट्टी का कण हूँ मैं।
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विस्तारित हुआ तो
इतना होऊंगा
कि सहज न पाओगे,
जो खुद में सिमटने लगा अगर
तो यह भी तय है
तुम रोक न पाओगे।
-
पसीने से तरवतर शरीर
को सुकून देने वाली
हवा करती दिल
को स्पर्श
तो उस स्पर्श में
तेरा ही जिक्र आता है,
हवा से करूं या
तुझ से करूं सवाल
मेरा तुझ से क्या नाता है?-
कुछ सफर अधूरे ही रह जाते हैं
पूरी हो जाती है तो
अचानक से सफर करने वालों
की जिंदगी,
तमाम खुशियाँ, आसूं, आशाएं
प्रियजनों से मिलने की बेसब्री,
सब एक झटके में खत्म हो जाती हैं
चीख, तड़प, पीड़ा और पुकार
इन सबके साथ ही
सफर पूरा होने से पहले
पूरी हो जाती है कितनों की जिंदगी,
पीछे रह जाता है अगर कुछ
तो बस लाश के टुकड़े
और अवशेष,
कहने को तो कितनी क्षणिक है मृत्यु
पर निर्दयी, पल भर में
वर्षों की जिंदगी निगल जाती है।
-
अब कहाँ होना चाहता हूँ
पूर्णिमा के चाँद सा मैं ,
घट – घटकर
अमावस्या के चाँद सा
विलुप्त हो जाना चाहता हूँ,
चाँद के घटने – बढ़ने से
फर्क पड़ता होगा
उसे निहारकर
ख़्वाबों में डूबने वालों को,
मैं तो नजरों
और ख्यालों से भी
ओझल हो जाना चाहता हूँ।-
मन में उतरते ही
ख्याल आपके
हृदय में मधुर भाव
उतर आते हैं
इनके उतरते ही
होने लगती
स्याही सुरमई
कुछ ऐसे
वसंत आने का गीत जैसे
खिलते हुए फूल
और भंवरे गाते हैं,
उनका गीत
सुनते धरा, नदियाँ,
पेड़ और पर्वत,
गीत सुनकर ये प्रेम से
वशीभूत हो जाते हैं।
-
बातें हो या वादा
पूरा किए बिना
मैं कहीं नहीं जाऊँगा,
किसी का
किसी से कहा
रह जाए अधूरा,
ऐसा मैं कभी
नहीं चाहूंगा,
अगर वादा न किया
तो न सही,
पर बिन किए भी
जितना होगा संभव
उतना करने की कोशिश में
जी जान लगाऊंगा।-
’ कड़वाहट से परे ‘
जीवन ने, लोगों ने भरी है
बहुत सी कड़वाहट मन में,
पर फिर भी
कड़वाहट लेकर चल नहीं सकता
कविताएं मीठी जो लिखनी है।
बड़ों को गलत को गलत बताकर
उनसे लड़ नहीं सकता
मर्यादाएं भी तो निभानी हैं,
कभी – कभी लगता है
शायद मैं ही हूँ हर जगह
गलत और दोषी,
मुझे कल्पनाओं सी
संतुलित, आदर्शभरी
दुनिया सजानी है।-