Akanksha Sharma Chetna   (चेतना)
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Joined 11 October 2018


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13 SEP 2020 AT 19:30

नाम ख़ुदा का लेकर तुम 'पुण्यात्मा' एक पत्थर को फूलों में सजाते रहे,
क्या काॅंटों की सेज पर लेटे अर्द्धनग्न की सिसकियाॅं तुम्हे सुनाई ना दीं?

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8 MAR 2020 AT 10:34

ख़ुदग़र्ज़ हूं ज़रा, कभी खुद से ना बताऊंगी
तू ही एक बार हालचाल पूछ लिया कर ना!

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19 OCT 2021 AT 22:57

छोड़ तो दूॅं ये कोशिशें मैं 'चेतना'
लेकिन अगर अगले कदम पर
कामयाबी राह देख रही हो तो?

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9 MAR 2021 AT 1:37

इक नन्ही चिड़िया अब घोंसला छोड़,
उन्मुक्त गगन में फिरने वाली है।

वो, जिसे पंखों का एहसास नहीं था,
अब अपने दम पर उड़ने वाली है।

(संपूर्ण कविता अनुशीर्षक में!)

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30 JAN 2021 AT 13:49

हमें अपने दिल में कैद ना करना, हिदायत है हमारी,
ये छोटे पिंजरे अक्सर ही हमें बेवफा करार देते हैं!
हम वो 'परिंदे' हैं जिन्हें मंज़िल से इश्क निभाना है,
ये रस्ते बेवजह ही हमारे किस्से 'इश्तिहार' करते हैं!
लोग हमारे पंख काटकर ख़ुद को शेर समझ रहे हैं,
उन्हें क्या पता हम इरादों से आसमान चीर लेते हैं!

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25 JAN 2021 AT 20:26

फकत दो पल के दिली सुकून में रुह कुर्बान किए बैठे हैं,
यूं ही नहीं अपनी ग़ज़लों में ख़ुद को बदनाम किए बैठे हैं।

जाने कितने ही इम्तिहान मेरी हसी पर दाव लगा रहे हैं,
फिर भी जाने क्यों ये होठ मुस्कुराने की रट लगाए बैठे हैं।

एक उम्र खो गई कहीं जैसे इस चार दिन की जिन्दगी से,
थक-हार कर अब अपनी कब्र से ही आस लगाए बैठे हैं।

इन ग़ज़लों में ज़रा मैं कमज़ोर सी पड़ जाती हूं चेतना,
पर वो सपने छूटे नहीं हैं जो इन आंखों में सजाए बैठे हैं।

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7 OCT 2020 AT 13:25

'वैश्या'

तन का विक्रय कर प्रति रात,
वो भार दिवस का सहती है।
पापी पेट के भरण के खातिर
एक वृक की क्षुधा मिटाती है।
एक चरित्रवान का दोष छिपा,
खुद चरित्रहीन कहलाती है!

(पूरी कविता अनुशीर्षक में पढ़ें)

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19 SEP 2020 AT 21:47

'तमाशा खूब हो जाता'

कभी जो रूठ जाऊॅं तो
मनाने कोई नहीं आता
महफ़िल छोड़ जाऊॅं तो
बुलाने कोई नहीं आता
मगर जब हार जाऊॅं तो
तमाशा ख़ूब हो जाता!

(कविता अनुशीर्षक में)

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15 SEP 2020 AT 20:14

सफ़र का हसीन होना ज़रूरी है,
केवल दीवानगी काफी तो नही
मंज़िल खुशनुमा बनाने के लिए!

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11 SEP 2020 AT 14:05

मेरे गुल्लक के खोटे सिक्के आज भी खिलखिलाते हैं
मलाल उन कागज़ी नोटों को है जिन्होंने चैन खरीदा है!

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