अच्छा सुनो, याद है ना ...
मैं कैसा बावला बना घूमता था तुम्हारे पीछे पीछे उन दिनों।
तुम देखतीं ही ऐसे थीं मुझको, मगन रहता था एकदम।
बावला ... सच्ची में ना।
समझा ही नहीं के तुमने, मुझमें, मुझको, कभी देखा ही नहीं।
मुझमें, तुमने वो सब ढूंढा, जो 'उसमें' पाने की ख़्वाहिश रखती थीं तुम।
फ़िर उस दिन ...
हो गईं हासिल 'उसमें', वो तमाम चीज़ें, जो देखा करती थीं मुझमें,
वो परिपोषक, वो श्लाघा, या फ़िर वो मौन की भाषा, वो भाषा का मौन।
मैं ...
तब भी था सामने, अब भी हूँ, पर अब मैं दिखता नहीं तुमको।
मैं, वो मुसाफ़िर, चलते चलते, बीच रास्ते से अचानक, मंज़िल ही ग़ुम हो गयी जिसकी।
पूछ लो ना कभी ...
इस बे-मंज़िल के मुसाफ़िर से, वैसे ही जैसे तुम पूछा करती थीं,
'ओ बावले! अब कहाँ जाएगा रे, करेगा क्या, हां?'
@abhi
- @abhi