लिखे नज़्मों ग़ज़ल मैंने, मेरे जज़्बात फानी हैं।
जो निकले रूह से मेरी, वो एहसासात फानी हैं।
दुआओं का कभी हिस्सा बने थे जो मेरी हर दिन,
मिले वो लोग तो जाना, हसीं सौगात फानी हैं।
रखोगे याद तुम मुझको फक़त अहसास खोने तक,
गवाही दे रहे शाम-ओ-सहर, सभी बात फानी हैं।
खिले हैं गुल वहाँ भी तो, जहाँ तूफां कभी आया,
बताती है यही तारीख़, हर हालात फानी हैं।
कहीं बरसे घटा घनघोर, सूखे हाल दूजी ठौर,
सिखाती है धरा हमको, सभी आफ़ात फानी हैं।
है इक माटी की रचना ही, हो चाहे राम या रावण,
दिखाते भेद कर्मों के गिरां इल्मात फानी हैं।
हो राजा-रंक चाहे वो, गए हैं हाथ खाली ही,
किसी भी दौर में हो वो, अना-औक़ात फानी हैं।
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