Zindagi E -Lafz   (Sanchita R Singh)
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Writer✍️
Joined 20 December 2021


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Joined 20 December 2021
19 APR AT 13:16

हासिल इस ज़िंदगी को मुयस्सर न समझना,
मुनासिब हो धड़कन में ख़ुद को ज़िंदा रखना।

गुजरे हर पतझड़ से ख़ौफ़ बंजर का न रखना,
कुछ फुहार से इश्क़ की ज़मीन ज़िंदा रखना।

दरख़्त की तरह मौसम से समझौता रखना,
ज़िंदगी की जड़ में थोड़ी नमी ज़िंदा रखना।

ख़ुदा की तरह उससे ख़ुद फ़ासला रखना,
पहली और आख़री हर याद ज़िंदा रखना।

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31 MAR AT 2:39

हौसलों के साथ खुद कदम बढ़ जाते है,
उम्मीदें नहीं छूटती वक़्त छूटते चले जाते है।

मँझधार है ये ज़िंदगी हर सफ़र कहती हैं,
निगाहें पनाह को इक किनारा ढूंढती है।

ग़मों की सूई में रंगीन ख़ुशियों के धागे है,
निखरें हुए लिबासों ने चुभन बहुत खाये है।

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17 MAR AT 20:14

मिलों सफ़र कर के, जुदा न ख़ुद को कर सके,
लहजे में नफ़रत लिए,उसके इर्द-गिर्द ठहर सके।

बेपरवाह कदम थे पर,दिल पत्थर न कर सके,
यादों को जितना ठुकराया,अश्क़ उतने भिगो सके।

उसके शहर से फ़ासले ले,फ़ासला कब रख सके?
ज़िक्र हुआ सफ़र का जब भी,तुम वहीं जा ठहर सके।

दिखे न आग ज़माने को,हर उन झोकों से बचा सके,
सुलगती उस चिराग़ को,कब कितना तुम बुझा सके।

ज़िंदगी को जितना ,बे-फ़िक्र तुम बता सके,
ख़बर कहाँ तुम्हें रही,कितने ज़ख़्म तुम गिना सके।

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17 MAR AT 0:17

ज़िंदगी के ज़हन में सवाल ये हरदम रहा,
मुसाफ़िर हो तुम पर सफ़र तुम्हारा कब रहा?

खुद के लिए यहीं कदम ठहरता क्यों रहा?
आँखों में तलाश लिए कैसे मुस्कुराता रहा?

हर शाख़ भी उसी के हर पत्ते भी उसी के,
ख़ामोशी कैसी दरख़्त की जब कोई तोड़ता रहा?

ज़िंदगी के ज़हन में सवाल ये हरदम रहा,
मुसाफ़िर हो तुम पर सफ़र तुम्हारा कब रहा?

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14 MAR AT 2:29

रिश्तों की धार पे जब ज़िंदगी चढ़ जाती है,
कतरा-कतरा रेत उसे सोखती चली जाती है।

लहरों की तड़प को कौन ताड़ पाया है?
किनारे की शीतलता सभी को भा आया है।

कब,कहाँ,कैसे वो गुम हो जाती है,
ख़ुद के वजूद से वो जुदा हो जाती है।

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9 MAR AT 21:34

उड़ती हुई धूल उसी जमीन में जा मिलती है,
कभी गीली तो कभी सूखी पर जा गिरती है।

हर ज़र्रे के एहसास को समेट कर रख लेती है,
धूल सी ये ज़िंदगी कब एक जगह ठहरती है?

तूफ़ानों के ख़ौफ से वो कब घबड़ाती है?
इन्हीं से गुजर कर वो सफ़र में बढ़ जाती है।

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6 MAR AT 14:24

पाक को पाक ही रहने दिया,
शिद्दत से हर साँस वो निभा दिया।
जुगनू सी दिख छुप जाती है,
ज़िंदगी जब जब मुस्कुराती है।
क्यों फ़रेब कह देते हो,
इश्क़ वो कहाँ जो तुम लिख देते हो।

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6 MAR AT 14:15

मुस्कुरा कर यादों को वो मात दे आई थी,
कितनी दफ़ा उन राहों से वो गुजर आई थी।

छलकते जज़्बातों पर तलाश की कमान थी,
साहिल सी आँखों में तूफ़ान समा वो आई थी।

बेख़बर बार-बार उस अंगूठे ने कब्र बनाई थी,
अतीत की मिट्टी जब-जब पैरों को जकड़ने आई थी।

ग़ज़ब की दफ़न थीं अजनबी बता आई थी,
राज़-ए-अल्फ़ाज़ वो बख़ूबी निभा आई थी ।

मौसम ए ख़िज़ाँ अब उसे कभी न छूँ पाई थी,
ख़ुद से मुख़्तलिफ़ हो ज़िंदगी लौट आई थी।

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28 FEB AT 8:21

हर सफ़र तन्हा हैं, पर शोर जब देखा
ख़ुदा ख़ुद को कहते हर नासमझ को देखा।

न तालीम से ताल्लुक़,न तहज़ीब से वास्ता
ए-वक़्त तेरी तरक़्क़ी का देख कैसा है रास्ता?

तेरे दर पे अक्सर खड़े उन हाथों को देखा,
बेगुनाहों के क़त्ल से जिसे शहर रंगते देखा।

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27 FEB AT 23:38

उनकी बेबाक़ी देख कदम ठहर जाते है,
जो चेहरे कभी उन बस्तियों में नज़र न आते है।
चिराग़ फेंक जो तमाशबीन दूर बैठे थे,
वो रहनुमा आज ख़ुद को बताते है।

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