मिलों सफ़र कर के, जुदा न ख़ुद को कर सके,
लहजे में नफ़रत लिए,उसके इर्द-गिर्द ठहर सके।
बेपरवाह कदम थे पर,दिल पत्थर न कर सके,
यादों को जितना ठुकराया,अश्क़ उतने भिगो सके।
उसके शहर से फ़ासले ले,फ़ासला कब रख सके?
ज़िक्र हुआ सफ़र का जब भी,तुम वहीं जा ठहर सके।
दिखे न आग ज़माने को,हर उन झोकों से बचा सके,
सुलगती उस चिराग़ को,कब कितना तुम बुझा सके।
ज़िंदगी को जितना ,बे-फ़िक्र तुम बता सके,
ख़बर कहाँ तुम्हें रही,कितने ज़ख़्म तुम गिना सके।
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