कट रही, सिमट रही, ये ज़िन्दगी पलों में उन,
जहाँ जीने का सलीका भूल दुख को गले लगाना हम सीख गए l
खुद पर भरोसा भूल आत्म शंका पर यकीन रखना हम सीख गए l
उम्मीद से नाराज़गी यूँ हुई, किस्मत को कोसने में सुकून ढूंढना हम सीख गए l
करेला न भाता था जो बचपन में, जुबाँ उससे भी कड़वी रखना हम सीख गए l
बीते पलों की नाकामियों के बोझ तले द्वार खड़े मौकों को बंद दरवाजा दिखाना सीख गए l
जहाँ स्कूल कॉलेज की परीक्षायें पास कर, ज़िन्दगी के इम्तेहान में हम कुछ यूँ उलझ कर रह गए l
कट गए, सिमट गए, यूँही ज़िन्दगी के साल कई l
चल, मन के इस पिंजरे से आज़ाद हो कर, लिखें बाक़ी की कहानी कुछ नयी l
जाग रही उम्मीद कहीं अंदर, कह रहा अब अंतर्मन मेरा l जीने का सलीका सीख ले इस पल मे जो, सार्थक हो जाये कहानी उसकी, ज़िन्दगी का विजेता वही l
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