सोच के निकला था कहने को ये बात,
की,
नीलकुरिंजी सरीखे कपड़े में लिपटी तुम,
जब धीमे-धीमे अपने कदमों से हम दोनों के बीच के फासले को कम कर रही थी,
आमतौर पर बक-बक करने वाला मैं, मौन था,
मानो "मिस्र की हेलेन" साक्षात सामने,
और उसपे मदहोश करने वाली मोगरे की खुशबू,
इस कदर दीवानगी बरसा रही थी,
की कद्रदान के साथ-साथ आसपास खड़े जाहिलों का भी भला हो रहा था,
और गहरी आंखों का वर्णन तो अत्यंत कठिन है,
क्योंकि जो उस रोज डूबा था, आज तक बाहर आने की कोशिश न कि, न आगे इच्छा है.....।
("स्मरण और स्मृति" से मोहब्बत, एक अनूठा एहसास)
(उस रोज की घटना है जब घर आने में देर हो गई थी उनको)
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