हम सारी ज़िंदगी बस एक ही चीज़ के पीछे भागते रहते हैं.. कि लोग क्या कहेंगे
लोग क्या कहेंगे....
न ढंग से जीते हैं न किसी को जीने देते हैं
औसत होकर रह जाती है ज़िंदगी.. इस समाज, इज्ज़त और लोगों की परवाह करते करते
खुल कर कभी अपने मन का नहीं कर पाते
न खुल कर हंस सकते हैं न रो सकते हैं
न जी सकते हैं न मर सकते हैं...क्यों
क्योंकि....लोग
हा भई हां... यही सोच के कि लोग क्या कहेंगे
फिर भी लोग वही कहते हैं जो वो कहना चाहते थे
और जो वो कहना चाहते हैं...
क्या कुछ गवां देते हैं हम इन लोगों के चक्कर में
हमारे सपने, खुशियां,अरमान , प्यार और न जाने क्या क्या
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