Tapesh Kumar   (तपेश)
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Joined 15 November 2018


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31 DEC 2022 AT 12:18

मंज़िलों का भी
अजीब इख़्तिताम रहा।
जब मिली,
रास्ता हो गयी।

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16 APR 2020 AT 0:48

वे पौधे - वृक्ष - तरू - पर्ण
जिनपर फूल नहीं खिलते
जिनपर फल नहीं लगते
वे भी तो
अस्तित्व की
किसी परिभाषा में समाहित हैं।

हरी दूब पर
ठहरी हुई ओस की बूंद
पीती हुई गिलहरी।

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20 JUL 2019 AT 20:46

चुप्पी चुप नहीं होती,
और शब्द भी
वाचाल नहीं होते।

वाचाल होते हैं
प्रश्नवाचक चिन्ह
जो वाक्यांत में आकर
इतना कुछ कह सुना जाते हैं
कि जवाब का धैर्य रह जाता है।
उसके बाद की ख़ामोशी
बहुत चीखती है।

फिर सारी व्यवस्था अजनबी हो जाती है-
शोर में एक लंबी शांति होती है
और एकांत में अज़ीब-सा शोर...

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7 MAY 2019 AT 20:41

खेतों में बिछी
गन्ने की सूखी जड़ें
कटाई के बाद
जमीन से दो बित्ते ऊपर
अपना छँटा-कटा मुँह बाहर किये
कभी अपने भूत में रसभरे भविष्य ताकती हैं
तो कभी ये सोचती हैं
कि उनके जने
गुड़ के ढ़ेले और चीनी की डलियाँ
कितनी दूर पहुंच गए...

और कल खेत में आग लगेगा
देवता को खुश करने प्रसाद चढ़ेगा
तब
गुड़ के ढ़ेले और चीनी की डलियाँ
बुलाए जाएंगे।

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2 DEC 2018 AT 12:09

एक रात है
कि सुनती रहती है रोज़।
एक बात है
कि खत्म नहीं होती।

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22 NOV 2018 AT 23:34

प्रेम में इंसान गिरता या उठता नहीं,
पड़ा रहता है।

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20 NOV 2018 AT 20:01

मेरा घर
जंगल और शहर की सरहद पर है।
शहर में
ख़ुद को जंगली पाता हूँ,
और जंगल में -
आदम।

मगर,
किस ओर कौन रहता है,
अब तक समझ नहीं पाया।

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3 JUL 2021 AT 2:52

तुमसे ही जाना
रजनीगंधा, चम्पा
औ गुलमोहर।

वरना,
सब फूल ही थे।

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2 MAY 2021 AT 2:56

ग़ुस्सा कम हो,
तो उदासी भर जाती है।
मन है,
खाली कनस्तर की तरह रखना है मुश्किल।

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2 FEB 2021 AT 23:40

सड़कें -
खिड़कियाँ और दरवाजे हैं।

सड़कें
केवल इसलिए नहीं बनीं
कि वे तुम तक पहुंच सकें।
वे इसीलिए भी बनीं हैं कि
तुम उनतक पहुंच न सको।

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