Sumit Verma   (Sumit Verma)
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Joined 27 October 2019


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8 HOURS AGO

कैसी ये दोस्ती,
ना जाने कब हो गई,
मैं पढ़ता गया,
और वो मेरी हो गई,
तन्हा सफर की साथी मेरी,
मेरी ज़िंदगी की राह बन गई,
कोई समझा नहीं उसे,
मेरी वो कामयाबी की चाभी बन गई,
आखिर मेरी किताब मेरी
जीवन की राह बन गई...

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8 HOURS AGO

मैं क्या हूं ये मुझे पता नहीं,
मैं आया क्यों हूं,
इसका भी मुझे पता नहीं,
पर जब हुआ मुझे ये एहसास,
तब मैं निकल पड़ा
अस्तित्व की खोज में,
मैं था एक मुसाफिर,
रास्ते का मुझे पता नहीं था,
चल रहा था सफर में,
पर ये कहां से गुजरेगी
ये भी मुझे पता नहीं,
कहां से गुजरेगी रातें,
दिन का ठिकाना भी पता नहीं,
क्या मिलेगी मंजिल,
या होगा सच से सामना,
क्या होगा मेरे साथ
ये भी मुझे पता नहीं...

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16 HOURS AGO

जमाने से छुपाकर कर रखा है तुम्हें,
की तुम्हें कही नजर न लग जाएं,
मेरे चांद को देखकर जमाना सारा,
कही चांद को ही न भूल जाएं....

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4 MAY AT 23:08

कुछ बदला–बदला सा
अब लग रहा है,
मौसम में कुछ
अलग नशा लग रहा है,
हवा का रुख शायद
अब बदल रहा है,
फूलों में एक नई
ताजगी दिख रही है,
तितली भी अब
चारों ओर दिख रही है,
मैं कुछ समझ नहीं रहा,
या दुनिया मुझे
कुछ और समझा रही है,
किस ओर देख रहा मैं,
की मेरी बात भी
मुझे समझ नही आ रही है...

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4 MAY AT 17:07

चाय की स्वाद
जैसी भी हो,
चाय पीने वालों को
अच्छी ही लगती है,
नशा है कुछ
ऐसा इसका,
जो न पीने वाला
कभी न समझा ....

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3 MAY AT 7:23

वो लम्हें ही कुछ और थे,
जो अब याद बन गए,
कैसे भरे रहने वाले वो कुर्सी,
अब पड़े–पड़े सुनसान बन गए...

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2 MAY AT 22:23

बहते पानी की मधुर ध्वनि के बीच,
जब तेरी धड़कन मेरी धड़कन में समा रही थी,
मानो वो भी एक मधुर ध्वनि गा रही थी...

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1 MAY AT 16:39

सोचूं जब मैं
ज़िंदगी के बारे में,
है अजीब पहेली
कोई न जाने ये,
कब शुरू हुई,
कब खत्म होगी,
क्या किसकी
कौन सी कहानी होगी,
कहां लिखा है ये,
बुझ न पाऊं मैं,
हर पल में ज़िंदगी का
एक नया झलक
पाऊं मैं,
अब मैं कैसे समझूं
की आखिर ज़िंदगी
कैसी है?
सोचूं जब मैं....

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30 APR AT 11:27

भावनाओ का सफर,
कोई समझ न सका,
बह गया भावनाओ में,
पर भावनाएं न कह सका....

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29 APR AT 22:46

दो दो लाइन कहते कहते,
पूरी बात कह गए,
कोई समझा नहीं हमें,
हम इशारों ही इशारों में जज्बात कह गए...

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