वो नासमझी थी मेरी,
ना रह सका तुम्हारे साथ,
वह कोलाहल में पंथ चंचल
ना सुन पाया हो अधीर,
साथ हो हम डगमगाए,
एक जो सुदूर सच था, फिर धुंधलाया,
पगडंडी पर खड़ा, फिर मैं दगमगाया,
गहराई बड़ी ना संभाल पाया,
किसी और को छोड़ बदलाव खुद में,
यही मैं देखता हूं,
मौन रह सब सुनता हूं,
और वक्त बिता बुरा था, यही मैं मानता हूं,
भूतकाल में रह भविष्य न देख पाता हूं,
अकेला रह कोने में बातें टटोलता हूं,
दिल से बुरा ना था कभी, भी यही बोलता हूं,
लेकिन, क्या यह आसान होगा ?
विश्वास सा जब टूट रहा,
क्या सच, क्या झूठ?
आखिर, कौन फैसला कर रहा?
क्या सही, क्या गलत?
आखिर एक मसला पैदा हो रहा,
तो फिर, क्यों एक आशा की किरण हतेली पर मेहसूस मैं करता ?
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