तमन्ना इतनी सी है, में उसकी सदाक़त से वाकिफ़ रहूँ। रोता है जब ये दिल, उसकी हक़ीक़त से वाकिफ़ रहूँ। दिन ढले या ख़्वाब जगे, उसकी मेहरबानियों से वाकिफ़ रहूँ। जी रही है जो ज़िन्दगी, उसकी हर नज़्म से वाकिफ़ रहूँ। मेंह की इस ग़ज़ल में, उसके हर ग़म से वाकिफ़ रहूँ।
अजब रात है, अजब बात है। ख़्वाब अधूरे हैं, ये चाँद फिर भी साथ है। आलम बदला सा लगता है, इस जहाँ का मुझे। जो रात चारों तरफ घुली है, पर आँखों मे फिर भी सुब्ह की आस है।
ये राहें भी क्या कमाल करती हैं, जवाब ढूंढने निकलते हैं। ये सवाल करती हैं, आज़माना बखूबी आता है इन्हें भी। हर रोज़ का जो हिसाब रखती हैं, थक गए थे जिन एहसासों को सहेजते-सहेजते.. सूनेपन में भी ख़्वाहिशें हज़ार रखती हैं।