Pushkal Agrawal   (फ़लसफ़ा (पुष्कल))
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Joined 30 June 2018


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26 FEB AT 17:53

उनके हाथ को थाम मैं आंख मीछे मीछे चलता था,

बहुत बेफिक्र बेपरवाह होता था,
जब मैं पापा के पीछे पीछे चलता था!

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26 FEB AT 17:39

कभी देखा है,
किसी चेहरे को दास्ताँ बयां करते हुये,
कुछ ना हो कर भी सब होने का गुमां करते हुये

आँखें जो कई समुंदर पी चुकी हैं,
ख्वाइशें जो अपनी ज़िंदगियाँ जी चुकी हैं,

सर, जिसे इंतजार हो फिर से उसी आशीष का,
जुबां जिसके हर शब्द में बस नाम हो उस ईश का,

कान, जो सुनना चाहते हों फिर किसी आवाज़ को,
कल जो बीत कर चिड़ा रहा हो आज को,

मैंने आज फिर हर वो जख्म गहरा देख लिया
गैर इरादतन जब आईने में अपना चेहरा देख लिया!

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10 JAN 2023 AT 22:39

सारे सपने
सारी तरक्कियाँ
ऐशों आराम
नाम काम
और बाक़ी सभी इंतजाम..
सब पीछे छूटने लगते हैं,

बाप के बीमार पड़ने पर अक्सर लोग टूटने लगते हैं!

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30 DEC 2022 AT 0:08

ये ख्वाब टूटें.. मैं जागूँ,
फिर तो कुछ कहूँ!

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14 DEC 2022 AT 3:09

निभाना था प्यार,
निभाने लगे किरदार!

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10 APR 2022 AT 12:47

सिगरेट तो बस छुआ करता हूँ..

मैं ज़िन्दगी को धुआँ करता हूँ!

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1 JAN 2022 AT 0:20

इक्कीस में न सही, बाईस में ही सही..
ज़िन्दगी ज़िन्दगी बने रहे, ख्वाइश में ही सही!😅

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6 NOV 2021 AT 15:51

सवालों का..
बवालों का..
किस्से कमालों का..
अतरंगी ख्यालों का..
अंधेरों का उजालों का..

मेरे तुम्हारे बीच जितनी भी अनसुलझी अनभिज्ञता वाली बातें हैं, उन सबका..
...जवाब, आज भी 'इश्क़' है!

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30 AUG 2021 AT 19:35

तेरी भोली सी सूरत साँवरिया मेरे दिल में बसी जा रही है
अब तो पहले से भी कहीं ज़्यादा.. न जाने क्यूँ याद आ रही है।

अब आ भी जाओ है रिश्ता पुराना.. कहाँ मिलोगे बता दो ठिकाना..
प्यारी प्यारी कदम्ब की छैयाँ मेरे मन को यूं तड़पा रही है!

तेरी घुँघराली लटकों में उलझी मेरी प्यासी ये दोनों आँखें..
कौन जाने मेरे इस मन की.. याद आदत बनी जा रही है!

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18 JUN 2021 AT 23:20

Red crosses and white walls
Screamful painful big big halls
Lives and deaths head-on-head
Some not able to move, others tied on bed
Drips in hands, in place of gloves
Glucose as diet, in place of loaves
Draining of millions of dreams
In painful and dreadful screams
Staff holding the scissors of hope
To cut down the unseen rope
Some playing with the tube of DNS bottle
At the age of playing home and hotel
Though to conclude all these inexplicable pains
I have lots of learnings lots of gains
Idea is to rise above the restlessness
To beat the demons of helplessness
And to consider all the pain as temporary
And write it down being a poet contemporary!

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