कोई शमा की तरह जलता रहा
कोई परवाने की तरह उड़ता रहा
कोई खुद से बेख़बर,
कोई सब से बेपरवाह,
कहीं शीशे के महल में,
तो कहीं मिट्टी के घर में,
बेतकल्लुफ सा दीदार के लिए
बस खयाली ख्वाब बुनता रहा,
सिमट जाता था वो
उन खयालों के दामन में
सोचता था वो की
कि आएगा वो उसके बुलाने पर,
साजिशों की आहट को सब्र से सुनता रहा
फ़िर भी कुछ अश्कों से, कुछ मुस्कराहटों से,
वो हज़ारों ख्वाहिशें बुनता रहा!
अनजान नहीं था वो अंजाम से,
हैरान नहीं था वो अलगाव से,
पर मोहब्बत से उसका रिश्ता था कुछ ऐसे,
जैसे फूलोँ का खुशबू से।
उसे चाहत नहीं थी मंजिल की,
बस जुनून था सफर का,
क्यूंकि भँवरे और दिलजले से परे,
उसे एहसास का सुरूर था,
वो खोना चाहता था चाहतों के दरिया में,
वो डूबना चाहता था अंगारों के सागर में,
मिटाकर खुद को, गावाकर सब कुछ,
वो समाना चाहता था इश्क के ढाई पन्नों मेँ.
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