कराह कराहती रही
और ख़ामोशी खामोश रही ।
अपनी आवाज़ के लिए
वो बहरी बनती रही ।
फसाने उमड़ते रहे उसमें
पर लफ्ज़ बनने से पहले टूटती रही ।
हकीकत का आइना कुछ यूं देख लिया था उसने
की उसकी परछाई से बचने वो खुद से आंखे बचाती रही ।
उसे क्या पता की उसने क्या किया
वो सब कुछ राज़ रखने खुद पर मुखौटा सजाती रही ।
वो रहनुमा इबादत का दुआ सा सलामत रहे
उसे अपना साया मान ये रटन करती रही ।
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