जैसे गंध नहीं छोड़ सकती पृथ्वी को रस नहीं पृथक हो सकता जल से शब्द नहीं चीर सकते आकाश के खोल को बल रहता है अधीर हाथों में गति सापेक्ष है काल के अग्नि समाधिस्थ रहती है काष्ठ में पुरुष और प्रकृति दोनों कभी अलग होकर नहीं रह सकते इतने पर भी जो दृष्टा होकर देखेगा वही सत्य देखेगा -प्रतीक कौशिक
सफ़र कहीं पे पहुंचने के लिए नहीं बल्कि कहीं से निकलने के लिए होता है। कोई भी रास्ता तुम्हें हाथ पकड़कर अपने संग ले चलने को नहीं आयेगा। तन्हाई भी एक वक़्त तक ही साथ देगी। वो नहीं रुकेगी जब वह जान जायेगी कि तुम अकेले नहीं अधूरे हो। और अकेले और अधूरे के बीच की खाई को सफ़र रूपी पुल ही पाट सकता है। मैं कहीं भटक जाना चाहता हूं। क्योंकि मैं अकेला होने का ढोंग कर रहा हूं। -प्रतीक कौशिक
कभी चाय के दो कप हुआ करते थे। हमें बिछड़े बरसों हो गये। हमारा रिश्ता होने और भरपूर होने के बीच की गलियों में कहीं टहलता हुआ गुम हो गया। चाय वहीं टेवल पर रखी ठंडी हो चुकी थी। वो क्या है जो अलग होने पर भी हमारे भीतर रह जाता है। एक तुम्हारा इंतज़ार। मुझे आज तक रास्तों से जोड़कर रख पाया है। मेरे भीतर की सारी संभावनाओं की जमीन बंजर हो चुकी है। अब कोई प्रेम के बीज मेरे हृदय में ना बो सकेगा। -प्रतीक कौशिक
कुछ लोग जब इस बात से आश्वस्त हो जायेंगे कि युद्ध से ही शांति स्थापित होती है तो वह इस धरती पर प्रेम को पनपने ही क्यों देंगे। -प्रतीक कौशिक -पीठ़ पर मैल
"वसुधैव कुटुंबकम" के तात्पर्य में सिर्फ पूरी पृथ्वी को परिवार मानना भर ही नहीं वरन् एक बुरी घटना पर पूरा विश्व रोये और उसे ठीक करे भी शामिल होना चाहिए। -प्रतीक कौशिक -पीठ़ पर मैल