कभी तुम जब नाराज हो तो कहना बस उस पल खामोश मत रहना जो मेरी गलती होगी तो मान लूंगा जो तुम्हारी गलतफहमी हुई तो तुमसे कोई शिकवा न करूंगा बस दोस्ती में है शर्त इतनी सी मेरी बुराई मुझे बता ही देना पर कभी कभी मेरी तारीफ भी करना जो सही होगी तो मैं मान लूंगा जो गलत हुई तो तुम्हारी पसंद जान लूंगा कभी आहिस्ता से कमरे में आकर मेरे लिखे पन्नों को पलटना जो कमी लगे तो कहना उसे मैं तब ही सुधार लूंगा पर तुम्हारी सोच पर सवाल न करूंगा
हमने जाना न था सूखे फूल भी खुशबू देते है हमने समझा न था रिश्ते वो कुछ अनोखे ही होते है जहां चिंता न हो किसी बात की मैं हूं ना कहे कोई आपको भी बस अपना जीवन जीने का तरीका सीखा दें हां वो जीवन की बुरी यादों को समेट फिर से कुछ यूं महका दें दें दें तब सूखे फूल भी कुछ यूं खुशबू बचा जीवन ही महका दें मैं नहीं जानती कब कौन कहां कैसे पर एक फरिश्ता तो रखते सभी
जाने क्या हुआ है एक अजीब सी कमी सी लगने लगी कभी थी मैं पूरी अब अधूरी लगने लगी जो सपने कभी सोचे न थे वो सपने देख आंखें जगने लगी मैं तेरी हौले हौले होने लगी जिंदगी बस तुममें ही खोने लगी हल्की सी हवा जो छू जाती है बस तेरा अहसास दिलाती है मेरी सांसे तुझमें ही बसने लगी बिन बात मैं तो हंसने लगी
कभी कभी रिक्त सी मैं कभी कभी पूर्ण सी कभी अर्ध विराम तो कभी पूर्ण विराम कभी प्रश्न चिन्ह तो कभी कोष्ठक का भाव कभी संधि सी समेटे वर्णों को कभी पदों में सिमटे ज्ञान कभी संज्ञा कभी सर्वनाम कभी अठखेली सी कभी नदी सी कभी पर्वत सी कभी चांद सी कभी अग्नि सी कौन हूं आखिर मैं यह एक अनबुझ पहेली सी ----------
वो जो छू गया एक महका महका सा ख्वाब मेरा हुआ वो जो पास मेरे जिंदगी की जैसे कबूल हुई कोई दुआ एक अनोखा सा अहसास वो मेरे दिल की मीठी मीठी प्यास वो वो जो मेरा हुआ जैसे पा ली है सारी दुनियां उसने जाने कैसे मुझे है चुन लिया पर वादा है मेरा उससे मैं बनने ना दूंगी कभी दिलों में दूरियां वो बस मेरा बस मेरा हुआ जैसे कोई सपना हकीकत हुआ
उम्र के इस पढाव पर दिल बचा हो गया गोया पूरी जिंदगी निकाली जब दरख़्त की मजबूती सी तो फिर अब ये क्या हो गया क्यों मन में तरंगे हिचकोले खाने लगी क्यों एक खाली पन सा हो गया ऐसा तो नहीं पहले सब थे मेरे पास अचानक ही अकेला हो गया कुछ तो रिक्तता रही थी मन में हर समय तभी तेरा आना एक सपना सा हो गया
कांच सी बिखर रही मैं नन्हीं उंगलियां फिर तरस रही है आज भी डरती हूं अंधेरों से कैसे खुद को संभालूं दो बोल प्यार के पा लूं आज भी तरसती हूं मैं आज भी तरसती हूं मैं कोई गलती तो बता दें बिन बात सबकी बातें सुनती हूं मैं हर कदम एक नया जख्म है बस अपने जख्मों में सुलगती हूं मैं कैद खुद में कहीं आजादी को तरसती हूं मैं तरसती हूं मैं
वीरान जिंदगी के वो अफसाने लिख के गोया सच मान लेती हूं हकीकत न सही उनकी कुछ भी पर पन्नों पर उनको जी लेती हूं है बहुत ही अजीब सी हलचल मेरे मन में, कि सोच को कैसे बदलूं इसीलिए जब हकीकत से हो मेरा सामना, जोर से पलक कुछ यूं मैं मूंद लेती हूं अपनी ही जिंदगी के राफ्ता कुछ बे मतलब से है रास्ते मैं अक्सर गलियों से काम लेती हूं पूरी दुनियां यूं तो खुश नजर आती मुझको पर खुद इस सवाल पर मौन रहती हूं वो कौन सा पल होगा जब मैं भी पा लूंगी कुछ पल का सुकून अक्सर बस उस पल को कागज़ पर उकेर देती हूं।
धूमिल स्मृतियों में, उसकी मनमोहक छवि समेटे नेत्र द्वय, खुद से बातें करते अधर अतृप्त इच्छा अशांत मन चिर से चिरातन तक पीड़ित हृदय हर क्षण ढूंढता है नव बसन्त
प्रिय की प्रियतमा को वांछित, मिलन, निहारती पथ को, इच्छित है आलिंगन नही अन्य अभिलाषा पौरुष की बाहों में चाहती सुखद अंत
पीहू खुद में उलझी सी पीहू अपने ही सपनों के आसमान में खुद को ही सिमटती सी पीहू सर्द हवाओं में बिन गर्म कपड़ों के खुद को पहचानती सी पीहू बारिश की बूंदों में खुद को बिखेरती सी पीहू कुछ अजीब कभी शांत कभी बेबाक सी पीहू कभी औंस की बूंद सी उसके प्रेम में फिसलती सी पीहू कभी आश्वस्त कभी चिंतित सी पीहू पर कभी न गुस्से में न कभी जलन का भाव बस कभी खुद पर इतराती सी पीहू कभी दर्पण में खुद को देख शर्माती सी पीहू कभी उसके शब्दों में खो जाती सी पीहू कभी उसके चेहरे में खो जाती सी पीहू कभी उससे नजरे चुराती सी पीहू कभी उसे राजदार बनाती सी पीहू