सत्य एक दृष्टिकोण है, झूठ तो विक्षेप है;
सदा सापेक्ष नहीं वह सर्वथा निरपेक्ष है।
निर्लिप्त भाव से ही सदा सत्य हो दृष्टिगोचर,
संभव है सत्य-दर्शन हर पूर्वाग्रह से मुक्त होकर!
चर्म-चक्षु से ही नहीं, बिन आंखें भी दिखता है सत्य;
अन्तर्दृष्टि या आत्मानुभूति को प्रमाण नहीं आवश्यक!
झूठ को सत्य बनाने में है प्रमाण नितान्त अनिवार्य,
सत्य तो है स्वत: सिद्ध, निर्द्वन्द है, है अपरिहार्य!
चिंतन, मनन, अन्वेषण से है संभव सत्य-साक्षात्कार,
तब भी स्व मनोस्थिति पर है निर्भर अपना स्वीकार!
हटा कर ऐनक अर्वाचीन दर्शन, ज्ञान, धर्म, पंथ की;
सुधि लेना होगी पुन: सत्य, सनातन, धर्म-ग्रन्थ की!
सोचा गांधारी ने आजीवन बाँध कर अपने अक्ष,
पतिवृता धर्म से सिद्ध भी होगा ही मेरा सत्य-पक्ष!
किंतु निज नेत्रहीन स्वार्थान्ध अधीश जैसा ही हो जाना,
अर्थात उसके अंध-नीतिपूर्ण नेत्रों से ही देख पाना!
देखता रहा धृतराष्ट्र अपनी अनुज_बधु की मर्यादा लुटते,
बिन आंखें भी उसके पुत्रों द्वारा इस कु-कृत्य को घटते!
आंखें बांधे गांधारी भी देखती रही ये अत्याचार,
कि उसे तो करना है आंखों में तेजस्विता का संचार!
साधना रत है कि पुत्र दुर्योधन की वज्र-काया देख सकूं,
करता रहे ताकि दुराचार निर्भयता से, सदा अमर कर दूं!
इस युग में भी अभी कल तक यही होता आया है,
तब भी नटवर ने लाज रखी सत्य की अब भेष बदल आया है।
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