ओमप्रकाश लटियाल 'अमरत'   (ओमप्रकाश लटियाल)
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Joined 7 August 2021


Joined 7 August 2021

मानव गर रहता मनुज,
तो था कितना ठीक।
देवासुर होता सहज,
पर यंत्र बना हुआ दीख।।

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दिखने में दो दिख रहे,
पर दोनो भए हैं एक।
सब इंसा यह चाहते,
पाना पावन प्रिती नेक।।

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इतना सवाल क्यों।
मांगा तो तुमसे प्रेम ही
इतना मलाल क्यों।

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आवाज दो सब कह रहे,आता नहीं सुनके आवाज।
वह कहते कहते मर गया, नही है सहायक परकाज।

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खा जायेगी
मीत हमारी जान।
चुप रहने से भला,
गाली ही दे दो जान।।

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कईयो को मंजिल मिली, इसी राह पर चल।
राही तू रुकना नहीं, बस रहो निरंतर चल।।

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इक तू ही है संसार मेरा,
अपनाले या फिर दुत्कारे,
एक तू ही है बस प्यार मेरा।

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रखे,
वो करते मेहनत से काम।
जबतक नही पाते सफलता,
तब तक करते नही आराम।।

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तब एक सुधारक नाम।
जो पावक शीतल करे,
वो अवध पति श्री राम।।

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हो सकता है चांद,
तम पर रीझे तज चांदनी।
यह एकाकीपन का बांध,
टूटे से नही टूटता।। "

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