आखिर अपने जिंदगी के सलाखों से, लड़ना कैसे छोड़ दूँ... अगर मेरे जिंदगी में तपना ही लिखा है तो मैं, ये तपना कैसे छोड़ दूँ.... भले ही कोई मुझे किनारे करते रहे या मज़ाक बनाते रहे लेकिन.... अपनी मंजिल तक पहुँचने की आखिर, वो सपना कैसे छोड़ दूँ...
हम शायरों के मंसूबों से वो शायराना बदल गया.... हवाओ के वेग से तीर का वो निशाना बदल गया.... हर समय बिना गलती के दबाना चाहा तुमने... अब हम भी बदल गए जमाना बदल गया....