वो अनजान मुसाफ़िर इक रोज़ शहर में आया था,
क्या ढूंँढना था उसे उसने जो मेरा पता बताया था।
मिलने की चाह थी कुछ कुछ तो मन घबराया था,
फ़िर भी हमने भी तो उसकी हांँ में हांँ मिलाया था।
पहली मुलाक़ात थी जो अपनी गंगा के किनारे पर,
इक नाव में बैठने को उसने अपना हाथ बढ़ाया था।
शरमाते इतराते हमने भी हाथों से हाथ मिलाया था,
इक सिरहाने वो था बैठा उसने ही पतवार उठाया था।
धीरे धीरे मचलती नाव दिल की धड़कनें बढ़ाती थी,
क्या कहें अपनी मुस्कान को कितना हमने छुपाया था।
नज़रें मिलती थी कभी कभी नज़रें झुक सी जाती थी,
ऐसे ही हम दोनों ने बस ढलती शाम का वक्त बिताया था।
कितनी बातें कहनी थी कितना आंँखों ने बतलाया था,
फ़िर भी कुछ कहे बिन हमने मोहब्बत को आज़माया था।
पहली चाहत पहला क़िस्सा ये दिल भूल ना पाया था,
वो अनजान मुसाफ़िर इक रोज़ जो मेरे शहर में आया था।
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