जो ना निभ सकी वो वफ़ा कैसी? तुम हो कर भी मेरी, मेरी ना हो सकी आख़िर तेरी रज़ा कैसी? अग़र ग़लत वो नहीं, हम नहीं फ़िर मिली क्युँ सिर्फ़ मुझे ऐ क़मभक्त वक़्त ये तेरी सज़ा कैसी?
मध्यम वर्ग के खुदगर्ज़ हैं हम, हमारी तिज़ोरी इतनी विशाल नहीं के दिल ख़ोल अँधा पैसा किसी पर लुटा दें। और ईमान इतना बिकाऊ भी नहीं कि किसी के हक़ की कमाई ख़ुद पर उड़ा लें।— % &
दिन बदलते रहें, ये मौसम भी बदला। तारीखें बदलती रहीं, लो साल भी बदला। रोज़ सवालों में घिरे, कहीं हम बदलें क्या? कहो हमारे बदलने से, जवाबें भी बदलीं क्या?