मोहन राजा पाण्डेय   (देशवासी)
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Joined 5 September 2017


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Joined 5 September 2017

बार बार मुझे मत एहसास दिलाओ,
क्या नहीं दे पाया तुम्हें।।
मेरे दिल से बढ़ कर,
तुम्हें कुछ अच्छा लगेगा,
ये हम,
तब कहां जानते थे।।
~©देशवासी

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बचपन से ही पिताजी की हर दीपावली पर जन्मदिवस मनाने का जो सिलसिला जारी रहा वो आज भी कायम है। लाज़मी है की उस वक्त लोगों को कहां तारीख याद रहते थे, उस जमाने में मौसम, प्रकृति,चांद की दशा से जन्म का समय याद रखा जाता था। आज उनके जाने के बाद भी दीवाली उनके जन्मदिवस के लिए ही मैं याद रखना चाहता हूं क्यूंकि इसी तिथि को मेरे जीवन को राह दिखाने वाला लौ जन्मा था, मैं जो हूं उसका मूल मेरे पिता ही हैं और दीवाली के सहारे वे सदैव मेरे जीवन के अंधकार को अपने आशीर्वाद रूपी रोशनी से रोशन करते रहेंगे।।
~©देशवासी

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रेखाओं का खेल है मुकद्दर,
रेखाओं से मात खा रहे हो।।
मांगने से कब मिली है,
कहां दुनिया में हाथ फैला रहे हो।।
-©देशवासी

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एक सफ़र के सफ़र में हूं, अंजाम से कुछ दूर,
धुंधला-धुंधला सा ही सही पर नज़रो को ऐतबार है।।
हर गुजरते वक्त के साथ खुद को जान रहा हूं,
दुनियां के लिए कभी गलत कभी सही, बरकरार है।।
हंसता हूं खुद पर, खुद से गिला करता हूं,
आसान नहीं है, मेरे जूते में उतरो, मुश्किलें हजार है।।
खुद के ही नहीं, दूसरों की तकलीफें भी झकझोर देती हैं,
और तुम्हें लगता है मुझे बस खुद से प्यार है?
एहसास है मुझे जल्द ही अटल सत्य हो जाऊंगा,
ये खुद से ही नहीं बल्कि खुदा से भी करार है।।
~©देशवासी

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तुम्हारे हाथ में दिए को देखा है मैंने,
तो तुम्हारे दिल के आग को भी जानता हूं,
तुम्हारे होठों पर हसी देखी है,
तो तुम्हारे नम पलकों को भी जानता हूं,
तुम्हारे कहने से अगर चुप हूं,
तो चुप चाप तुम्हारी सांसों को भी जानता हूं,
कह नहीं पाता अकसर तुम्हें,
तो तुम्हारे लिए खुदा को क्या कहना है, वो जानता हूं,
प्यार, वफ़ा, रिश्ता, अकसर शब्द रह जाते हैं,
तुम से मैं, मुझसे तुम हो, ये जानता हूं।।
~©देशवासी

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देखन तोय जो लागू, भूलू दिन और रैन,
बंसी वाले ये जो तेरे काजर वाले नैन।।

मोर पंख सिर पर धरी, कर दियो बेचैन,
रे सांवरे ये जो तेरे काजर वाले नैन।।

अधरों पे मुस्कान जो ठहरी, दिल को दे गयो चैन,
ओ ठाकुर मेरे, तेरे काजर वाले नैन।।

~©देशवासी

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ऐ रात जरा तू सोच चढ़ा, क्यों सोच रहा तू सोने को?
रणधीर बढ़ा तू पैर जरा, वो देख सुबह है होने को।।

लौ बुझ गई सो बुझने दे, अंदर उबाल तू भर तेरे,
माटी पुकारती चीख-चीख कर, जंजीरों को हर मेरे।।

मन के पिंजरे को खोल जरा, उठा कलम, कुछ बोल जरा,
क्या कुछ तुझसे न हो पाएगा, आत्मबल को तौल जरा।।

भारत भूमि है नाम जहां का हर कण शंकर-काशी है,
गर्व से ऊंचा उठा मस्तक, देवों के देश का वासी है।।

इक आखरी हुंकार लगा, सुनने दे ब्रह्मांड में कण कण को,
इस जीवन में ही करना है, जो कुछ है प्यारे करने को।।
~©देशवासी

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तू सही, मैं सही, ये सही, वो सही,
गलत होना तो भूल ही गए हैं।
तेरी ख़ुशी, मेरी खुशी, इसकी हंसी, उसकी हंसी,
गम अपनाना तो भूल ही गए हैं।।
इससे पहले कि आप मुझे अपनी ओछी मानसिकता का परिचायक मान लें, मेरा एक सवाल है, जिसका जवाब आप मुझ तक जरूर पहुंचाए। इससे आप खुद को जिम्मेदार किस हद तक मानते हैं इसका अंदाजा लगेगा। समय हो तो जरूर सोचिए और बताइए।।
"सवाल - खुशी क्या है और इसकी हद क्या है?"

•••एक वक्त गलत होने में भी गर्व था, सुकून था, आज तो रिश्ते इतने व्यक्तिगत और प्रतियोगिता से भरे हैं की एक कि खुशी दूजे के गम को बढ़ा देता है।
•••इस हद तक हम खुद में रह गए हैं कि अकेले होने के बावजूद दूसरे के हाथो को थामना गवारा नहीं, कुछ पल थाम भी ले तो धर्य की इतनी कमी है कि असहजता होने लगती है जल्द ही।
•••किस पीड़ा को जन्म दे रहे हैं हम और क्यों? जबकि इस पीड़ा का शिकार हम खुद होने वाले हैं चाहे आज - चाहे कल।।
•••जीवन को हमें जश्न बनाना चाहिए,
•••सुनिए सबकी, न जाने किसके अंदर वर्षों की आंधी दबी हो ।।
~©देशवासी

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आए तो चलते चलते मेरे मकबरे के करीब,
गुस्ताखी माफ चलो इसी बात पर।।
रुसवाई से, मुंह मोड़ लिए मेरे हबीब,
वार दूं हर सांस तेरे इस अंदाज पर।।
दगाबाजी जो कर, ढूंढ लाए रकीब,
मयखाने में रह जाऊं सारी रात भर।।
ज़रा नजरों में इक हया संभाल मेरे नसीब,
तेरे आंखो कि नज़र न पड़े मेरे हाथ पर।।
~©देशवासी

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तफ़सील से पूछो मेरा हाल, क्या पता किस बात पर मुझे जान जाओ,
निगाह-ए-जमाल नहीं, दिल-ए-करीम देखो, इल्तिज़ा है, सादगी पर मेहरबान जाओ।।
ख़िलाफ़त सबब नहीं मेरे रूहानीपने का,
जो समझ गए, इब्तेदा-ए-इश्क से मेरे अक्स को भी छान जाओ।।
~©देशवासी

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